धूप में
मैं चला था आस लेकर रौशनी की, धूप में
पाँव छालों से भरे हैं, ज़िन्दगी की धूप में
दब गयी फ़रियाद, मोटी फाइलों के बोझ से
मर गया इंसाफ़ देखो बेबसी की धूप में
चन्द लम्हों में ही अब सारा बदन जलने लगा
खो गयी सारी अकड़ है आदमी की धूप में
इक झलक पाने को मैं था शाम तक तपता रहा
हाय रे ! घर से न वो निकले मई की धूप में
आइये अब तो, क़रीब आने का मौसम है ‘असीम’
आशिक़ी की छाँव लेकर, बेरुख़ी की धूप में
– शैलेन्द्र ‘असीम’