धीरे – धीरे ज़ख़्म सारे
धीरे – धीरे ज़ख़्म सारे
अब भरने को आ गए ,
एक बेचारा दाग़ -ए -दिल है
जिसको ग़म ही भा गए।
ज़िन्दगी को जब ज़रूरत
उजियारे दिन की आ पड़ी,
लपलपायीं बिजलियाँ
गरजकर काले बादल छा गए।
बांसुरी की धुन पे थिरका
बृज के साथ सारा ज़माना,
श्याम जब राधा से मिलने
यमुना तट पर आ गए।
आज फिर आँगन में मेरे
नन्हीं कलियाँ खिल रहीं,
गीत फिर इनको सुनाओ
जो दादी नाना गा गए।
क्या मनाएं जश्न हम
ज़िन्दगी की जीत का,
बाँटने को थीं जो चीजें
हम उन्हीं को खा गए।
-रवीन्द्र सिंह यादव