जाति-धर्म
अलग-अलग हर खोपड़ी, बोल रहा इक मंत्र।
सब धर्मों को मान दो,तभी देश गणतंत्र।।
अपना ये संसार है, अपने हैं सब लोग।
फिर क्यों अंतस में भरा, भेद-भाव का रोग।।
जाति-गोत्र से हो नहीं, मानव की पहचान।
एक धर्म इंसानियत, बनो नेक इंसान।।
ऊँच-नीच समझे नहीं, होता वही महान।
दया-धर्म जिसमें भरा, वो सच्चा इंसान।।
जैन, जाट,गुर्जर,दलित, हिन्दू मुस्लिम वर्ग।
समानता सब को मिले, देश बनेगा स्वर्ग।।
प्रतिभाओं को डस रहा,आरक्षण का साँप।
विषम परिस्थिति देख कर, हृदय रहा है काँप।।
प्रेम-दया मन में रखें, मानवता का धर्म।
जीवन के उत्कर्ष का, रहे एकता मर्म।।
जाति-धर्म के नाम पर, लड़ते हो बेकार।
छोड़ सभी को एक दिन, जाना है संसार।।
ऊँच-नीच कोई नहीं,सब है एक समान।
मूढ़ फँसा किस जाल में,जीवन कर्म प्रधान।।
-लक्ष्मी सिंह