“धर्म से बड़ा कर्म”
“धर्म से बड़ा कर्म”
भले , धर्म से बड़ा कर्म है;
हरेक धर्म का,यही मर्म है।
पर , निजधर्म मत त्यागो;
अपने धर्म से, तू न भागो।
जो धर्म छोड़े वो, बेशर्म है;
वो करे,एक बड़ा कुकर्म है।
कुछ धर्म-कर्म, लगे जर्म है;
कोई भला,क्यों ऐसे गर्म है।
जब सच्चाई नहीं,अधर्म है;
जैसे,शरीर पर चढ़ा चर्म है।
संस्कारयुक्त एक ही धर्म है;
जो,सच्चा व ज्यादा नर्म है।
जिसका नहीं दिखे , टर्म है;
इसको मानने में, न शर्म है।
अब तुम भी, यही मान लो;
सच्चे धर्म को, पहचान लो।
धर्मज्ञ से ,धार्मिक ज्ञान लो;
जीवन में तुम , सम्मान लो।
शत्रु से, ना जीवन-दान लो;
खुद को बना तू, महान लो।
कुछ भी,मुश्किल नहीं यहां;
यदि तुम,सच में ये ठान लो।
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स्वरचित सह मौलिक:
…..✍️पंकज ‘कर्ण’
……. ..कटिहार।।