धरती
ईश्वर की एक अद्भुत रचना,
बिना जिसके जीवन बस एक सपना ।
विलक्षण स्वरूप, सुन्दरता अकाट्य,
पर हारी अपनो से ही प्रेम से जिनके बाध्य।
ममता का प्रेममयी रूप-अनूप,
रहते जिसकी छाया तले जीव-रुप।
संवेदना रहे जग की वेदना सहे,
पर धीर-रूप कभी किसी से न कहे।
है अज्ञान जीव जो सब भूलें,
पर कहीं ऐसा न हो कल;
अपना अस्तित्व ही ढूंढें?
है वो शक्ति कराल जब रौद्र रूप को पाए,
प्रलय मे जिसकी सब ध्वस्त हो जाए।
करो सम्मान मातृ जन्मभूमि का,
हरी-भरी धरती हो निर्मल आकाश हो;
अस्तित्व बचा रहे तभी जब सबका साथ हो।