“दौर”
“दौर”
हाथ में रंग-बिरंगे कंचे, उंगलियों पे निशाना
माँ-बाप के पूछने पर गढ़ लेते थे बहाना
रस्सी पे कसे लट्टू हर जगह पर चल्ली
डण्डे के चमकते ही उड़ जाती थी गिल्ली
मस्त शाम और सुहानी भोर था
वो एक अलग ही दौर था।
ना डर..ना गुस्सा.. ना चीख..ना चिन्ता
वो कुछ और था,
वो एक अलग ही दौर था।