दो दिन
सायं 8 बजे जब आलोक ऑफिस से घर आया तो उसने अपने ससुर को ड्राइंग रूम में बैठा देखा। उसने उन्हें नमस्ते किया और अंदर चला गया। अंदर जाकर उसकी अपनी से नोक-झोंक शुरू हो गई।
“ये तुम्हारे पिता जी यहाँ क्यों आए हैं? इन्हें हमारे घर लेकर क्यों आई हो?”
“आपको तो पता है, भाई वापस जर्मनी चला गया है। पापा जी की देखभाल करने वाला कोई नहीं है। लगभग एक बजे पड़ोस में रहने वाले रावत अंकल जी का फोन आया था। बोला, बेटा आपके पापा जी की तबियत बहुत खराब है। मैं जब घर गई तो पापा जी बेहोश थे। रावत अंकल जी के साथ पापा जी को डाॅक्टर के पास लेकर गई। डाॅक्टर ने बोला कि इनका विशेष ध्यान रखने की जरूरत है। इसलिए अपने घर ले आई। आप ही बताइए , पापा जी को इनके घर में अकेले भी तो नहीं छोड़ सकती थी।”
“तो तुमने घर को धर्मशाला समझ रखा है। जिसको मन हुआ घर लेकर आ गई।”
“ये मेरे पापा जी हैं।राह से किसी को पकड़कर नहीं लाई हूँ।आप समझते क्यों नहीं।”
“मैं ये सब नहीं जानता। मैंने किसी का ठेका नहीं ले रखा है।”
“ठीक है। आप परेशान मत हो। मैं कल सुबह पापा जी को इनके घर छोड़ आऊँगी।”
अगले ही दिन संध्या अपने पिता जी को मन मसोस कर उनके घर वापस छोड़ आई। दो दिन बाद रावत जी का फिर फोन आया और वे रुँधे गले से बोले-
“बेटा, हमारा पड़ोसी और सबसे प्यारा दोस्त दुनिया छोड़कर चला गया।”
संध्या सोचती है, काश! आलोक ने पापा जी को दो दिन हमारे साथ घर में रहने दिया होता तो मैं अंतिम समय में उनके साथ रहकर बेटी का फर्ज निभा पाती।
डाॅ बिपिन पाण्डेय