दोस्ती और विश्वास
प्रशांत और विजय बचपन से गहरे मित्र थे। वे दोनों स्कूल में साथ साथ पढ़ते थे। कक्षा में दोनों ही अच्छे विद्यार्थी थे और पढ़ाई लिखाई में हमेशा एक दूसरे की मदद किया करते थे। इन दोनों का घर भी आस पास था इसीलिए ऐसा कोई भी दिन नहीं जाता जिस दिन वे एक दूसरे से मिलते न हों। कई बार तो परीक्षा के दिनों में दोनों साझा पढ़ाई करने के लिए एक दूसरे में से किसी एक के घर रुक जाया करते थे ताकि परीक्षा की बेहतर तैयारी कर सकें। स्कूल खत्म करने के बाद संयोगवश दोनों का दाखिला भी एक ही कॉलेज में हो गया । फिर तो दिन प्रतिदिन उनकी मित्रता प्रगाढ़ होती चली गई । एक साथ बी० ए० की पढ़ाई समाप्त करने के बाद दोनों ने एमबीए में दाखिला लिया, लेकिन इस बार उनका दाखिला अलग-अलग कॉलेज में हुआ। अलग-अलग कॉलेज में ही नहीं अपितु उन्हें पढ़ाई करने के लिए अलग-अलग शहर में भी जाना पड़ा। सुशांत एमबीए की पढ़ाई के लिए कोलकाता गया जबकि अजय बेंगलुरु। अब छुट्टियों में जब वे दोनों अपने-अपने घर पटना आते तभी एक दूसरे से मिल पाते थे। लेकिन धीरे-धीरे उनके बीच दूरियाँ बढ़ने लगीं। एमबीए की पढ़ाई के दरमियान भी दोनों की काफी व्यस्त दिनचर्या हुआ करती थी। क्लास, असाइनमेंट, प्रोजेक्ट, सेमिनार, प्रेजेंटेशन आदि नाना प्रकार की गतिविधियों उन्हें इतना उलझाए रखतीं कि आपस में फोन से संपर्क करने का समय भी मुश्किल से ही मिल पाता था।
दोनों के मन में बचपन से ही आगे चलकर नौकरी के बदले बिजनेस करने की इच्छा थी। कालांतर में उनका यह सपना सच हुआ और जहाँ प्रशांत ने रियल स्टेट में कंपनी बनाई वहीं विजय ने जूतों का कारखाना खोला। इस बार दोनों दिल्ली के आसपास ही बस गए। प्रशांत ने अपना कारोबार गुड़गांव में स्थापित किया जबकि विजय ने अपनी फैक्ट्री ग्रेटर-नोएडा में खोली। एक दिल्ली के इस पार और एक दिल्ली के उस पार। इसी बीच उन दोनों की शादी हो गई और उनके घर भी बस गए। दोनों का काम धंधा अच्छा चल रहा था लेकिन व्यापार की व्यस्तता और घर गृहस्थी की जिम्मेदारी के कारण उनका मिलना जुलना काफी कम हो पाता था। फिर भी वे कोशिश करके महीने में एक बार तो मिल ही लिया करते थे। इसके अलावा यदा-कदा फोन से संपर्क में रहते थे। किसी के यहाँ कोई आयोजन हो या कोई पर्व- त्यौहार, तब तो मिलना हो जाता था। वैसे तो सब कुछ ठीक-ठाक था, उनका आपस में संपर्क भी बना ही रहता लेकिन कहीं न कहीं वह बचपन वाली प्रगाढ़ता नहीं रही थी।
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एक समय ऐसा आया जब रियल स्टेट तंगी के दौर से गुजर रहा था उस वक्त प्रशांत की कंपनी की माली हालत बिल्कुल खराब हो गई थी। धंधा शुरू करने के पहले जो कर्ज उसने लिया था उसे भी पूरी तरह चुका नहीं पाया था और उसे दोबारा कर्ज लेने की जरूरत आन पड़ी। इस पर भी जब कंपनी की स्थिति नहीं सुधरी तो उसने पुनः बैंकों में कर्ज के लिए आवेदन किया लेकिन उसकी कंपनी की आर्थिक स्थिति का निरीक्षण करने के उपरांत बैंक ने और कर्ज देने से इनकार कर दिया।
अंततः प्रशांत ने विजय से मदद मांगने की सोची। बहुत हिम्मत करके प्रशांत विजय के पास आर्थिक मदद की आशा में पहुंचा। विजय का व्यापार उस वक्त काफी तरक्की पर था लेकिन सफलता और दौलत के नशे में चूर विजय ने प्रशांत को दो टूक सा जवाब दे दिया, “दोस्त मैं तो उधार देने आ लेने के सख्त खिलाफ हूँ। अपनी खुद की फैक्ट्री तो मैंने गाँव की जमीन बेचकर शुरू की थी जबकि लोगों ने मुझे बैंक से लोन लेने की सलाह दी थी….और तुम्हारे ऊपर तो वैसे भी लोन का अंबार है। आखिर इतना कर्जा उठाने से पहले ही तुम्हें सोचना चाहिए था कि इनको चुकाओगे कैसे? आई एम सॉरी।”
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खैर समय ने करवट ली और प्रशांत अपनी आर्थिक तंगी से उबर गया। एक दूर का रिश्तेदार उसका पार्टनर बन गया और थोड़ी शेयर होल्डिंग लेकर उसकी आर्थिक मदद करने को राजी हो गया जिससे कंपनी की हालत धीरे-धीरे सुधरने लगी।
उधर कोरोनावायरस के काल ने विजय के व्यापार पर कहर ढा दिया। विजय की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गई कि उसे फैक्ट्री में ताला लगाना पड़ा और वह कंगाली के मुहाने पर खड़ा हो गया। दो साल जैसे तैसे करके गुजरे और किसी तरह पहले के जमा किए हुए पैसे से उसने अपने घर का खर्च चलाया।
जब करोना की हालत सुधरी तो विजय ने पुनः फैक्ट्री चालू करने की सोची। अब उसे मदद की जरूरत थी। उसके दिमाग में अनायास ही प्रशांत का नाम कौंधा जिसकी आर्थिक स्थिति अब काफी बेहतर हो चुकी थी। परंतु उसे पूर्व में किया गया अपना बर्ताव याद आया, जब प्रशांत उससे मदद माँगने आया था, और मन ही मन वह ग्लानि से भर गया। फिर भी उसे विश्वास था कि विपत्ति की घड़ी में उसका दोस्त प्रशांत अवश्य उसकी सहायता करेगा। वह जानता था कि प्रशांत बहुत ही सहृदय है। बचपन में भी लड़ाई और मनमुटाव होने पर प्रशांत हमेशा ही विजय को मना लिया करता था और कई बार अपने हिस्से के चॉकलेट्स भी दे दिया करता था। आखिर हिम्मत करके वह बड़ी उम्मीद लेकर प्रशांत के पास गया।
प्रशांत को बदला लेने का भला इससे अच्छा मौका क्या मिलता। उसने भी विजय की ही तर्ज पर ढेर सारी नसीहतों के साथ उसे बैरंग लौटा दिया। विजय को प्रशांत से ऐसे व्यवहार की कतई उम्मीद नहीं थी उसका दिल छलनी छलनी हो गया। खैर किसी तरह अपने आँसुओं को पलकों पर सँभाले हुए वह निराश होकर वापस लौट आया। बीती सारी घटनाओं का आकलन करते हुए उसकी रात गुजरी और उसे एक पल के लिए भी नींद नहीं आई।
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दूसरे दिन सवेरे वह चाय पीकर अन्यमनस्क सा अखबार लेकर बैठा था। अखबार उसके सामने खुला तो था मगर उसकी नजरें खबरों पर जैसे थी ही नहीं। कल की घटना के सदमे से वह उबर ही नहीं पा रहा था।
तभी उसके घर कोरियर से एक लिफाफा आया। लिफाफे पर भेजने वाले का नाम नहीं लिखा था। उसने लिफाफा खोला और यह क्या… लिफाफे के अंदर से उसे 50 लाख का एक चेक और एक संक्षिप्त सा पत्र मिला। लिखावट देखते ही उसे यह समझते देर न लगी कि यह प्रशांत का पत्र है। पत्र में लिखा था –
‘दोस्त यद्यपि तुमने मेरी मदद नहीं की थी फिर भी तुम्हारा मुझ पर इतना विश्वास था कि मैं तुम्हारी मदद करूँगा और तुम मेरे पास आए। यह दोस्ती के लिए बहुत बड़ी बात है।मैंने जो कल तुम्हें बुरा भला कहा था वह सिर्फ तुम्हें यह जताने के लिए कि दोस्ती में दिल टूटने पर कैसा महसूस होता है। तुम्हारा दोस्ती पर यह विश्वास मेरे लिए बहुत बड़ी पूँजी है। मैं तुम्हारा यह विश्वास तोड़ नहीं पाऊंगा, दोस्त। फिलहाल मेरे से जितना बन पड़ा है मैं उतनी मदद तुम्हें भेज रहा हूँ और हाँ….. पैसे लौटाने की कोई जल्दी नहीं है…..अपनी सहूलियत से धीरे-धीरे लौटा देना। लौटाने की बात मैं इसलिए कर रहा हूँ कि तुम्हें यह महसूस न हो कि मैं तुम्हारे ऊपर कोई एहसान कर रहा हूँ। दोस्ती में एहसान की कोई जगह नहीं होती है। तुम जल्दी ही अपनी समस्याओं से उबर जाओगे ऐसा मेरा विश्वास है और मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं।’
अजय की आँखें भर आईं और दो बूँद आंसू टपक कर पत्र पर गिर पड़े जिससे उसके अक्षर धुँधला गए लेकिन उसके दिल में जो अपने दोस्त की छवि थी वह मानो आँसुओं से धुल कर और भी चमकदार हो गई हो।
©पल्लवी मिश्रा ‘शिखा’, दिल्ली।
[यह मेरी स्वरचित एवं मौलिक रचना है। सर्वाधिकार सुरक्षित – पल्लवी मिश्रा ‘शिखा’, दिल्ली]