देखा है
पढ़े-लिखों के घरों को उजड़ते देखा है।
अनपढ़ों को तो हम ने निखरते देखा है।
समंदर की लहरें भूल ही जाती हैँ उछाल।
झीलों को हम ने कई बार उमड़ते देखा है।
क्यूँ मायूस हो जाती है क़लम भी ख़ुद से ?
तलवारों को तो हम ने चमकते ही देखा है।
महलें फल-फूल कर भी ग़रीब हो जाते हैं।
झोपड़ियाँ को हम ने अमीर होते देखा है।
अक्सर लड़खड़ानेवाले ही संभल जाते हैं।
सम्भलों को तो हम ने लड़खड़ाते देखा है।
इंसान तो शौक़ से हैवान हो जाता हैं यहाँ।
हैवानों को तो हम ने इंसान बनते देखा है।