देखकर आज आदमी की इंसानियत
देखकर आज आदमी की,
इंसानियत को,
सोचता हूँ कि जमीं में दफना दूँ ,
अपनी शराफत को।
और मैं भी बन जाऊँ,
बिना मूल का दरख़्त,
जो हवा के छोटे झौंके में,
छोड़ देता है अपनी जमीं।
सोचता हूँ कि मैं भी,
बेच दूँ अपना जमीर,
मैं भी छोड़ दूँ ,
अपना धर्म और उसूल।
शुरू कर दूँ अपने स्वार्थ के लिए,
वह पाशविक प्रवृत्ति,
जिसमें ना रिश्तों की पवित्रता है,
और ना ही आदमी का स्वाभिमान,
लेकिन एक सच भी है इसमें,
कि मैं सुरक्षित कर लूँगा स्वयं को।
देखकर आज आदमी की———-।।
शिक्षक एवं साहित्यकार
गुरुदीन वर्मा उर्फ़ जी.आज़ाद
तहसील एवं जिला- बारां(राजस्थान)