दूर बैठा मजदूर
दूर बैठा मजदूर
तोड़ता पत्थर
गढ़ता स्वप्न
खुरदरे हाथों के साथ
नजर पैनी
हथौड़ा और छेनी
शांत ,संतोष
कह रहा
केशव दुखी मत हो
कहाँ है तुम्हारे पार्थ
कहो मत हों आर्त्त
मै तोड़ता हूँ पत्थर
तरास्ता हूँ उन्हें
कुछ बन जाते हैं
देव दूसरे कुछ और
कुछ न कुछ रूप
ले लेते हैं
पर कुछ प्रकृति से मजबूर
रह जाते हैं
चुभने और चुभाने के लिए
रण में दुर्योधन और दुशासन
भी चाहिये ।
कर्म के इस योग
से दूर करेगा
नैराश्य , अर्जुन
चोट तो जरूरी है
आदमी के इंसान
बनने के दौर में
सनातनी परम्परा
परिवर्तन बदलाव
अच्छे दिन की आश
सब होगा
चोट ,तराशना
छैनी हथौड़ा
अप्रिय निर्णय
ऐसे ही लिए जाते हैं
सत्ता हो या कुरुक्षेत्र
केशव दुखी मत हो
पार्थ चुनेगा
धर्म का पथ
चोट करेगा
अन्याय पर
सबकी परिभाषा
होती है अलग
हो सकता है तुम्हारा धर्म
दूसरे के लिए कुछ और हो
सर्वमान्यता
समय तो लगेगा
बदलेगा मौसम
लगता है बदलेगा तो जरुर
प्रयास जारी हैं ,और रहने भी
चाहिए ।।