दूर का चश्मा
दूर का चश्मा
‘सर, मैंने आपकी आंखों की जांच कर ली है, नम्बर में मामूली परिवर्तन हुआ है, पर लैंस बदलने होंगे। आइए, मैं आपको एक से एक बढ़िया इम्पोर्टेड कम्पनी के लैंस दिखाता हूं’ कहते हुए दुकान का मालिक रघु, रईस नौजवान जयेश को चैम्बर से लेकर बाहर निकला। ’मि. रघु, तुम बहुत बढ़िया चीज़ दिखाओ, पैसे की कोई चिन्ता नहीं है, दिखाई साफ साफ दे और आंखों को कोई परेशानी न हो’ जयेश ने रघु से कहा। ‘सर, आप चिन्ता ही न करें, मेरे पास आप जैसे क्वालिटी पसंद लोगों के लिए जापान के, जर्मनी के, अमेरिका के लैंस हैं’ कहते हुए रघु ने कैटेलाग सामने रख दिया। ’मि. रघु, यू आर द बैस्ट जज, तुम बताओ, मुझे चीज़ अच्छी चाहिए, चाहे जापान की हो, जर्मनी की हो या अमेरिका की’ जयेश ने कहा। ‘आप चिन्ता न करें सर, आपको दूर का देखने में दिक्कत है, आपको मैं यह लैंस दूंगा, औरों से थोड़ा महंगा है, पर चीज़ भी तो शानदार है, अब आप फ्रेम सिलेक्ट कर लीजिए’ कहते हुए रघु ने एक से एक बढ़िया फ्रेम पेश कर दिये। फ्रेम ऐसे ऐसे कि सिलेक्शन ही मुश्किल हो जाये। ‘मि. रघु, तुमने तो मुझे कन्फ्यूज़ ही कर दिया है। ये भी तुम ही बताओ कि कौन सा फ्रेम सही रहेगा। पर यह ध्यान रखना सोबर होना चाहिए, चटकीला या भड़कीला नहीं’ जयेश ने कहा। ‘सर, मैं आपकी पसंद समझता हूं इसलिए चटकीले और भड़कीले रंगों वाले फ्रेम का बाॅक्स तो मैंने आपके सामने रखा ही नहीं। आप एक अलग क्लास के आदमी हैं’ रघु ने जवाब दिया। अपनी तारीफ़ सुनकर जयेश के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई थी।
जयेश ने मोबाइल निकाला और बाहर इंतज़ार कर रहे अपने ड्राइवर को फोन किया ‘रामदीन काका, आप ज़रा अन्दर आ जाइए।’ ‘किसे दिखाना है सर!’ रघु ने पूछा। इतने में रामदीन अन्दर आ गया। ‘रामदीन काका, ज़रा आप देखकर बताइये मुझे कौन सा फ्रेम ठीक लगेगा’ जयेश ने पूछा। ‘बाबा, आपकी अपनी पसंद ही बहुत बढ़िया है, आप ही चुन लीजिए’ रामदीन बोला। जयेश उसकी बात के अर्थ को समझ गया। ‘अच्छा, रामदीन काका, मैं दो तीन फ्रेम लगाकर दिखाता हूं, देख कर बताना कौन सा अच्छा लगता है’ जयेश ने कहा। ‘ठीक है बाबा’ रामदीन ने कहा, क्योंकि वह दोबारा बात न मानने की हिम्मत नहीं कर सकता था। ‘मि. रघु, बारी बारी से ये तीनों फ्रेम लगाकर दिखाओ’ जयेश ने कहा। ‘ठीक है, सर’ कहते हुए रघु ने पहला फ्रेम लगाया और अपनी असिस्टेंट से कहा कि फोटो खींच लो। असिस्टेंट ने फोटो खींच ली। ऐसे ही दूसरे और तीसरे फ्रेम के साथ फोटो खींची गई। रघु ने तीनों फोटो को एकसाथ दिखाकर पूछा ‘यह लीजिए सर, अब आप देखिये, तीनों ही आपके चेहरे पर फब रहे हैं’ रघु ने कहा। ‘काका, आप भी देखिए और बताइए इनमें से कौन-सा फ्रेम जच रहा है’ जयेश ने कहा। रामदीन ने तीन में से दो की तरफ इशारा करते हुए कहा ’ये बहुत ही अच्छे लग रहे हैं, इनमें से पसंद कर सकते हैं।’ ’देखा मि. रघु, आप पूछ रहे थे न कि किसे दिखाना है, ये हैं रामदीन काका, न जाने कितने सालों से इनकी गाड़ी में बैठता आया हूं, इन्हें मेरी हर पसंद-नापसंद मालूम है, ठीक कहा न, काका’ जयेश बोला। ‘इनकी गाड़ी!’ रघु यह सुनकर चकित था। ‘हां, इनकी गाड़ी है यह, अपने बच्चों की तरह संभाल कर रखते हैं, क्यों काका, गलत तो नहीं कहा मैंने’ जयेश ने काका से पूछा। इतनी आत्मीयता सुनकर रामदीन काका के मोटे फ्रेम के चश्मे के शीशे पर कुछ बूंदें नज़र आने लगी थीं। ‘कार होती जो वाइपर चलाकर साफ कर लेता, पर अब …’ यह सोच ही रहे थे काका कि तुरंत रघु ने कहा ‘काका, आप अपना चश्मा हमें दीजिए, काफी धंुधला हो गया है, इसे लोशन से साफ कर देते हैं।’ रामदीन काका ने चश्मा उतार कर दे दिया। उनकी आंखों की पलकों पर आंसू ओस की बूंदों की तरह ठहर गये थे। रामदीन काका जड़वत खड़े रहे और मन ही मन प्रार्थना करते रहे कि ये आंसू पलकों पर ही बैठे रहें, नीचे न लुढ़कें। नीचे लुढ़क गए तो गरीबी की रेखाएं बन जाएगी। वे आज तक स्वाभिमान से जीते हुए आए हैं। कभी किसी से कुछ मांगा नहीं। जो मिला उसी में गुजारा किया। ईमानदारी उनका गहना थी जिसे चुराने की वह किसी को हिमाकत नहीं करने दे सकते थे।
स्थिति बहुत विचित्र थी। जयेश काका की आंखों के सैलाब को देख चुका था। वह भी काका को किसी भी हालत में दयनीय नहीं देखना चाहता था। उसने काका की ओर देख रहे रघु का ध्यान बंटाया ‘मि. रघु, सुना है आजकल लैंस के ऊपर कोटिंग हो जाती है जिससे बारिश हो जाने पर बारिश की बूंदें शीशे पर ठहर नहीं पाती हैं।’ ‘यस सर, मैंने जो प्लान बनाया है उसमें बेहतरीन कोटिंग होगी और बारिश में पानी चश्मे के लैंसों पर नहीं रुकेगा’ रघु ने कहा। इस बातचीत का फायदा उठाकर रामदीन काका मुंह फेर कर दुकान में डिसप्ले किए हुए चश्मों की ओर ऊंचा सिर करके देखते रहे और कोशिश करते रहे कि पलकों पर रुके आंसू वापिस अखियों में चले जायें। पर ऐसा कभी हुआ है। आंसू कमान से छूटे तीर की तरह होते हैं। निकल गये तो निकल गये। अब उन आंसुओं का किस पर क्या असर होता है, यह दीगर बात है। उधर बात करते करते जयेश ने धीमी आवाज़ में रघु से कहा ‘मि. रघु, काका के चश्मे का साइज और नम्बर नोट कर लीजिए और बहुत ही बढ़िया हल्के वज़न वाला लैंस और सुंदर सा फ्रेम चुनकर एक चश्मा बना दीजिएगा और मुझे दोनों का बिल बता दीजिएगा’। फिर आवाज़ को वापिस सामान्य करते हुए कहा ‘मि. रघु, मुझे कुल बिल बता दीजिए।’ ‘अरे सर, चिन्ता किस बात की करते हैं, कुछ और पेश करूं, कोई सन ग्लासेज़, वगैरा’ रघु ने पूछा। ‘नहीं, इस समय आप मुझे कुल बिल बताइए’ जयेश ने कहा। ‘सर कुल मिलाकर आपके साठ हजार रुपये हो जायेंगे’ रघु ने बताया। ‘ठीक है, जब चश्मा बन जाए तो मुझे फोन कर देना, रामदीन काका पैसे देकर ले जायेंगे’ जयेश ने यह कहते हुए काका की ओर देखा ‘काका, चलिए।’ ‘अरे बेटा, मेरा चश्मा साफ हो गया होगा’ काका ने रघु से कहा। ‘जी काका, यह लीजिए, देखिए पहले से कितना साफ लग रहा है’ कहते हुए रघु ने काका को चश्मा पहना दिया। ‘हां, पहले से तो बहुत साफ है, पर इसमें लकीरें नज़र आने लगी हैं’ काका ने जानना चाहा। ‘हां काका, लकीरें इसलिए नज़र आ रही हैं क्योंकि पहले लकीरों में धूल जमा थी जिससे लकीरें छुप गई थीं। धूल साफ होते ही लकीरें नज़र आने लगी हैं। क्या आपको देखने में कोई दिक्कत हो रही है’ रघु ने पूछा। ‘नहीं, नहीं, उम्र के साथ चेहरे पर लकीरें आ चुकी हैं, फिर तो यह चश्मा है’ कहते हुए रामदीन काका हंस पड़े थे। पर उस हंसी के पीछे की गरीबी की धूल को साफ करने में नाकामयाब रहे थे। जयेश को लेकर काका घर पहुंचे। शाम हो चली थी। जयेश ने कहा ‘काका, अब आप जाओ, घर पर बच्चे आपका इंतज़ार कर रहे होंगे। कहो तो मैं छोड़ दूं।’ ‘अरे नहीं बाबा, मैं चला जाऊंगा, रास्ते में से कुछ मिठाई लेकर जाना है, आज बेटी ने जो परीक्षा दी थीं उसका नतीजा आना था। जाकर सुनंूगा’ कहते हुए काका निकल गये। स्वाभिमानी थे इसलिए पीछे मुड़कर भी उस आवाज़ को नहीं सुना जो कह रही थी ‘काका, ये लो कुछ पैसे लेते जाओ, मेरी तरफ से मिठाई ले लेना’। जयेश खुद से कह रहा था ‘मुझे अगर स्वाभिमान से जीना सिखाया है तो काका ने’।
काका की बेटी अव्वल दर्जे में पास हुई थी। बहुत ही खुश ही और काका को सरप्राइज़ देना चाहती थी। काका ने घर पहुंच कर दरवाज़ा खटखटाया। बेटी को तो जैसे मौके का इंतज़ार था। फटाक से दरवाजे के पीछे जाकर छुप गई और मां को चुपके से दरवाज़ा खोलने का इशारा किया। मां भी समझ गई और उसने जाकर दरवाज़ा खोल दिया। ‘अरे सुनो तो, बेटी आ …..’ सवाल अभी मुंह में ही था कि बेटी ने दरवाजे़ के पीछे से निकल कर जोर से आवाज़ कर काका को डराया और फिर उनसे कसकर लिपट कर उछलने लगी। इस अगाध स्नेह प्रदर्शन में काका का चश्मा गिर कर टूट गया और चहचहाती बेटी सहम गई। ‘ओ, यह क्या हो गया’ बेटी घबरा गई। काका बोले ‘अरे कोई बात नहीं बेटी, जुड़ जायेगा, तू चिन्ता क्यों करती है, टूटे चश्मे से भी दिखता है। यह ले तू मिठाई खा, मुझे पता था कि तू अच्छे नम्बर लाएगी’ काका ने स्नेहपूर्वक कहा था। ‘ठहरो काका, मैं पहले टेप लगाकर चश्मा ला दूं तो फिर मेरी खुशी को देखना। अभी तो धुंधली नज़र आयेगी’ कहती हुई बिटिया टेप लेने चली गई। ‘सुना तुमने, चश्मे जुड़ने के बाद मुझे उसकी खुशी साफ नज़र आयेगी, नादान बेटी, जानती नहीं कि उसके खुशी को तो मेरा दिल का चश्मा पढ़ता है और उस पर तो अभी कोई खरोंच भी नहीं आई है’ काका भावुक हुए थे। पिता बेटियों के लिए अक्सर भावुक हो जाया करते हैं। ‘दुकानदार तो क्या मालूम हमारे चश्मों पर धूल पड़ी रहे तो ही अच्छा होता है, धूल होती तो मजबूती बनाए रखती और शीशा न टूटता। पर जो होनी को मंजूर होता है वही होता है। ‘ये लो पापा, मैंने बहुत ही बढ़िया तरीके से बारीक बारीक टेप लगा दी है, पता भी नहीं चलेगा’ बेटी खुश होने का यत्न कर रही थी। ‘भई वाह, तू तो चश्मे वाले दुकानदार से भी ज्यादा एक्सपर्ट है’। काका ने हंस कर बोला। ‘सुनिए, ये आपके कानों के ऊपर घाव कैसे हैं’ पत्नी ने कहा। ‘अरे कुछ नहीं, अब जब चश्मा रोज रोज कान पर सवार होगा तो अपने निशान तो छोड़ेगा न, जैसे पैरों के निशान पड़ जाते हैं’ काका ने समझाया। ‘नहीं, नहीं, मैंने आपसे पहले ही कहा था कि हल्के वज़न वाला चश्मा लेना पर आपने फिर भारी वाला पसंद किया, आप भी तो मानते नहीं’ पत्नी रुष्ट हुई थी। ‘अरी भागवान, हलका चश्मा जेब पर भारी पड़ता है और ज़रा ज़ोर से पकड़ा नहीं कि मुड़ गया, ये मजबूत है देखो इतने सालों से चल रहा है’ काका ने समझाया। पत्नी चुप हो गई। फिर सभी ने मिठाई खाकर मौज की।
‘काका, यह साठ हज़ार रुपये हैं। रघु का फोन आया था। तुम जाकर चश्मे ले आओ’ कहते हुए जयेश ने काका को रुपये दे दिये और साथ ही साथ यह भी देख लिया था कि काका के चश्मे पर टेप लगी थी। काका रुपये लेकर रघु के पास पहुंचे। ‘आओ, आओ, काका, बैठो’ रघु ने कहा और आवाज़ देकर कहा ‘जिन चश्मों की डिलीवरी देनी है वे ले आओ’। असिस्टेंट ने चश्मे का पैकेट थमा दिया। रघु ने पैकेट खोलकर एक चश्मा निकाला और काका से कहा ‘काका, ज़रा पास आइए’। कुछ समझ में नहीं आ रहा था पर फिर भी उठ कर आगे गए। ‘ज़रा अपना चश्मा दीजिए’ रघु ने कहा। ‘नहीं भाई, अभी यह साफ है और मुझे साफ दिख रहा है’ काका को लगा कि रघु ने चश्मे पर लगी टेप देख ली है। ‘अच्छा आप मुझे मत दीजिए पर उतारिए’ रघु ने निवेदन किया। काका ने चश्मा उतार लिया और अपने हाथ में कसकर पकड़े रखा। रघु को हंसी सी आ गई। फिर रघु ने पैकेट में से एक चश्मा निकाला और काका को पहना दिया। ‘जरा देखिए साफ दिखता है’। ‘हां, साफ दिखता है पर ये तो बहुत ही हल्का है, लगता ही नहीं पहना है, अब पैक कर दीजिए, बाबा पहनेंगे तो उन्हें बहुत अच्छा लगेगा, जल्दी करें, मुझे देर हो रही है।’ काका ने कहा। वे भूल ही गए कि उनके और जयेश के नम्बर में भी फर्क है। ‘काका जी, यह चश्मा तो अब आपकी आंखों पर ही रहेगा, यह बाबा ने आप ही के लिए बनवाया है’ रघु ने कहा। ‘नहीं, नहीं, यह तो बहुत महंगा है, यह उन्हीं का है, आपको कोई गलतफहमी हुई है’ काका जी थोड़ा घबराये। ‘काका जी, यह आप ही के लिए है, मुझे उसी दिन कह दिया गया था जब आपका चश्मा साफ किया था और तभी हमने माप भी ले लिया था’ रघु ने समझाया। ‘रघु बेटा, मुझे नहीं समझ में आ रहा कि मैं क्या कहूं पर इतना कह सकता हूं कि बाबा की नज़रें कमज़ोर नहीं हैं, उन्होंने दूर का चश्मा क्यों बनवाया है, वह तो बहुत दूर की देख लेते हैं, बिना चश्मे के ही’ काका बहुत भावुक हो गये थे। ‘हां काका, उनके दिल में ही है दूर का चश्मा’ रघु की भी आंखें गीली हो आई थीं।