दूरियां
कभी मशरूफ थे हम,
दोस्तों के बीच में अपने।
अब आलम ऐसा है,
ना हम किसी को और,
ना कोई हमको भाता है।
चुरा के आँख मै तब,
निकल जाता हूँ महफ़िलों से,
मेरा हमदम मेरा साथी,
जो कोई राह में मिल जाता है।
ये दूरियां जो दरमियाँ,
कँहा से हैं ये आ गई।
किसे मै दोष दूँ ,
ये मुझे कुछ अब,
समझ न आता है।
बना जज्बात को कलम,
कागज पर कुछ नग्मे,
मै लिखता जाता हूँ।
अकेलेपन में अपने,
बैठकर उनको यूँ ही,
मै गुनगुनाता हूँ।