दुर्घटनाओं के पीछे जन मानस में क्रांति हो…
मासूमों को ठूंस -ठूंस कर स्कूलों में ले जाते हैं ,
ऐसे हादसे हो जाते हैं काल का ग्रास बन जाते हैं।
सिर्फ पैसा और पैसा यही तो सारा नाच नचाता है,
मासूमों का मांस नोच नोच कर क्या इंसान खाता है?
कहां की इंसानियत है जब इंसान ही गीद्ध बन गया,
सिर्फ पैसे के खातिर वह हत्यारा बच्चों का बन गया।
इसका एक ताजा उदाहरण कनीना का हादसा है,
आठ मासूमों की चिताएं जली इसमें भी लालसा है।
क्या ये मासूम बच्चे मिल पाएंगे कभी अपनों से,
मां बाप के लिए खुद के बच्चे हो गए हैं सपने से।
भाई की सुनी कलाई पर अब बांधे कौन राखी,
बहन भी इंतजार करेगी भाई बिन कौन साथी।
मां दहाड़े मार रोवै पीट पीट सूनी अपनी छाती,
पिता भी रो रहा दुबककर कोने में मासूम भांति।
आशाओं की माला टूट गई कोई मोती रहा नहीं,
उजड़ गया चमन बहार का कोई फूल रहा नहीं।
सरकारों को भी इन पर सख्त कानून बनाने चाहिए,
इन जल्लादो के गले में फांसी का फंदा लगाना चाहिए।
सतपाल फरियाद कर बच्चों की आत्मा को शांति हो,
ऐसी दुर्घटनाओं के पीछे जन मानस में एक क्रांति हो।