दुनिया गोल है
बस खचाखच भरी हुई थी। कई डबल सीटों पर तीन-तीन सवारियाँ मुश्किल से बैठी हुई थीं। एक सज्जन बड़े आराम से पैर फैलाये बैठे थे।
“भाई साहब आपकी बड़ी मेहरबानी होगी, अगर मेरी बीवी को बैठने के लिए सीट मिल जाये। वह बीमार है और इस हालत में नहीं कि ज़्यादा देर खड़ी रह सके। भीड़ की वजह से पहले ही हम दो-तीन बसें मिस कर चुके हैं। परेशान हालत में हमें घंटाभर स्टैंड में ही खड़े-खड़े हो गया।” अनुरोध करते हुई एक व्यक्ति ने कहा। वह तीन वर्षीय बच्चे को गोदी में थामे खड़ा था। उसकी बीवी सचमुच बीमार दीख रही थी। उस पर मरे थकान और पसीने से लथपथ थी। लगता था अब गिर पड़ेगी या न जाये कब गिर पड़ेगी? वैसे भी प्राइवेट बस वाले इनती रफ़ ड्राइविंग करते हैं कि बैठी हुई सवारियाँ भी परेशान हो उठती हैं। खड़ी सवारियाँ तो राम भरोसे ही रहती हैं।
“सॉरी मैं नहीं उठ सकता …” बेरुखी से बैठे हुए सज्जन ने कहा, “आप किसी और से कहिये?”
“और सीटों पर तो पहले ही तीन-तीन लोग बैठे हुए हैं। आप भी थोडा-सा एडजेस्ट कर लीजिये।”
“नहीं, मैं क्यों करूँ?”
“प्लीज, भाईसाहब, मेरी बीवी सख्त बीमार है। उसको सीट दे दीजिए।” उस व्यक्ति ने लगभग रो देने वाले अंदाज़ में आग्रह किया, “आपके घर में भी तो माँ-बहन होगी!”
“अब कही न मन की बात। पहचाना कौन हूँ मैं?” कहकर वो व्यक्ति हंस पड़ा।
“नहीं तो … कौन हैं आप?” उस व्यक्ति ने याद करने की कोशिश की।
“भाईसाहब, हफ्तेभर पहले मैंने भी आपसे यही कहा था, कि आपके घर में भी माँ-बहन होगी …”
“ओह! तो आप वही हैं!”
“बिलकुल सौ फीसदी वही हूँ।” उस व्यक्ति ने अपनी टोपी उतारकर सर खुजाते हुए कहा। फिर टोपी पहनते हुए वो बोला, “इसलिए तो कहा गया है कि दुनिया गोल है!”
“प्लीज भाईसाहब, मुझे माफ़ कर दीजिये और उस वाक्यात को भूल जाइये।” उस व्यक्ति ने पश्चाताप भरे स्वर में कहा।
“कैसे भूल जाऊं? उस रोज़ मेरी बूढी माँ खड़े-खड़े ही बस में सफ़र करती रही और आप सांड की तरह सीट पर पसरे हुए, मज़े से चने खाते हुए गा रहे थे। याद आया जनाब … इसलिए मैं तो तुम्हें सीट हरगिज-हरगिज न दूंगा। चाहे तुम्हारी बीमार बीवी चक्कर खाके गिर ही क्यों न पड़े?” कहकर टोपी मास्टर ने इत्मीनान की साँस ली और जेब से चने निकलकर खाने लगा और गुनगुनाने लगा, “चना ज़ोर गरम बाबू मैं लाया मज़ेदार। चना ज़ोर गरम ….”
लगभग पांच मिनट तक बस हिचकोले खाते हुए चलती रही। बीमार बीवी की हालत सचमुच ही ख़राब हो रही थी, लग रहा था अब गिरी या तब। अगल-बगल वाली सवारियाँ उसे ढंग से खड़े होने की नसीयत दे रही थी। उसे धीमी आवाज़ में रह-रहकर टोक रही थी।
“अरे क्या कर रही हो मैडम, सीधे खड़े हो जाओ? हमारे ऊपर क्यों गिर रही हो?” आखिर बगल में खड़े आदमी का धैर्य जवाब दे गया, तो वह चिल्ला कर भड़क उठा।
“बेचारी बीमार है।” उसका आदमी रो देने वाले स्वर में बोला।
“बीमार है तो ऑटो-कार में आते, बस से सफ़र करने की क्या ज़रूरत थी?” वो आदमी आक्रोश में गरजता रहा।
“आ जाओ भाभी जी, आप मेरी सीट पर बैठ जाओ!” चना खाते-खाते वह सज्जन उठ खड़ा हुआ। उसके हृदय में करुणा का संचार हुआ। बीमार स्त्री के भीतर नई चेतना का संचार हुआ और आँखों से आभार व्यक्त करते हुए वह सीट पर जा बैठी।
“भाईसाहब आपकी बहुत-बहुत मेहरबानी मुझे आज ज़िंदगी का सबसे बड़ा सबक हासिल हुआ है।” उसके पति ने बच्चे को अपनी स्त्री की गोदी में रखते हुए कहा।
“लो भाभी जी चना खाओ, कुछ ताकत आ जाएगी।” पूरा चने का पैकेट उसने बीमार स्त्री को दे दिया, “बीमारी में फायदा करता है चना।” अगल-बगल खड़े सभी लोग चना मास्टर को कृतघ्न भाव से देख रहे थे।
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