दु:ख
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तर्क है, दु:ख है
तर्क ही दु:ख है
मानव जीवन से इतर कहाँ है दु:ख।
प्राणी जगत में दिव्य सुख।
मनुष्य आत्मप्रशंसित है-
ईश्वर अपने अहम् में ढूँढ रहा।
इसलिए अपना दु:ख जन्म दे रहा।
मानव करता है शौर्य के लिए हत्या सा कर्म।
प्राणी-जगत में हत्या है क्षुधा का धर्म।
मानव को विधाता ने कर्मशील कर दिए।
बनाया पालनकर्ता विष्णु सा।
पर,हर घृणित कार्य को सर्वदा उत्सुक और उद्धत।
बना वह महारौद्र, बनना था उसे सहिष्णु सा।
जीवन वृत्त है –कृष्ण की व्याख्या।
क्योंकि,जीवन वस्तुत: उर्जा है।
उर्जा के विभिन्न रूपों में एक रूप जीवन।
अत: अनवरत चलायमान विवस्वान जैसा। (सूर्य)
सृष्टि में दु:ख नहीं है कहीं,हमारे मन में है।
दु:ख मानव-रचित मात्र तार्किक वचन में है।
दु:ख जीवन से आस्था खंडित होने का नाम है।
दु:ख हमारे किये कार्यों का ही तो परिणाम है।
यौगिकों और रसायनों का ही ढूह है यह जीवन।
हमारे तन, मन,वचन के योग और वियोग का आसन।
दिव्यासनों से होते हम हैं दिव्य।
तब हमारे दु:ख होते है सुखों जैसा भव्य।
मृत्यु दु:ख है।
पर,जन्म ही करता है हर दु:ख का सृजन।
दु:ख स्पंदन है,स्पंदन है अत: दु:ख है।
मन के स्पंदन में चेतना हो तो दु:ख है।
अचैतन्य मन नहीं होता कभी दु:खित।
जीवन को आना है और जाना है।
मानव मात्र होता आया है भ्रमित।
दु:ख सापेक्ष है।
स्याह को गौर से दु:ख है।
दरिद्रता को ऐश्वर्य से ईर्ष्या।
मृत्यु को जीवन से स्पर्द्धा।
मरुभूमि को वन का स्पृहा।
वन्य जीवों को मानव होने की आकांक्षा।
मनुष्य को अमृत की चाह।
दु:ख उपजता यहीं है।
दु:ख बाजे सा बजता यहीं है।
सर्जक के प्रारूप में जो मन है-
वह जन्मता भाव-शुन्य है।
भूख और प्यास आदिम इच्छा है।
इसके इतर तृष्णा है
अविभावकों द्वारा दिया गया
पाप या पुन्य है।
तृष्णा दु:ख का है सर्जक।
सुख का वर्जक।
शुन्य से दिव्य हो भाव तो मानवीय
आसुरिक हो तो दु:ख और दानवीय।
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