दीप
दीप अकेला विश्वास और गर्व से भरा
अन्धकार में विजय पाने को हर्ष से भरा
जलती हुई लौ से सन्देश दे रहा
निज जलकर जग को प्रकाशित कर रहा
पथ की बाधा बने वेग या हो घने तिमिर की छाया
अटल निश्चय कर लड़ रहा ओढ़े संकल्प की शक्ति
आज विचारों को दृढ़ कर लड़ रहा अकेला
नव राह पर चलने को स्वयं हठीला
निशा काल में कुछ व्यक्त कर रहा
सब ओर से है रोशन कर रहा
है वीर अकेला डटकर खड़ा
जाने कितनी बाधाओं से लडा
तन कर खड़ा हो जैसे वीर प्रहरी सा
लीन होकर निज कर्म पर अडिग सा
क्षण भर में कितना इठलाता है
मानों चाह नभ तक छूने की रखता है