दिखा दो सवेरा
हे ईश्वर ये किस जगह पर हूँ मैं
मैं स्वयं को ही खोज नही पाता
मद्धिम मद्धिम है ये सांसे अब तो
स्वयं मैं कुछ भी सोच नही पाता
उसकी स्मृति मे ही अब हर क्षण है
पृष्ठो मे मात्र वो ही नजर आता
लिखना तो एक ढेर चाहता हूँ
परन्तु लिख मैं कुछ भी नही पाता
ताने हर व्यक्ति देता मुझे अब तो
बिन कारण वो सब सुनना पड़ता
विश्वास नही कि कुछ कर पाऊँगा
मेरा ही प्रतिबिम्ब मुझे ही डराता
उखड़ा उखड़ा सा समय रहा है
सम्पूर्ण परिश्रम अब है प्रतिहार
कंकड़ पत्थर बिखरे पथ पर अब तो
नीरस हुआ लगता पथ बेकार
शेष नही कुछ भी भंडारित ध्यान
कुंडलिनी भी अब सुप्त हुई देखो
भ्रमित होने लगा हूँ फिर अब मैं
जितनी समस्याएं टाड़ पर फेको
कठिन है इनसे दो हाथ करना
समस्या भी अब है द्वार पर खड़ी
भय नही समाधान की डांट का
अंदर आने की जिद पर है अड़ी
अब भी एक दम्भ सा है कही तो
अंधकार है और है अब अज्ञान
थका थका सा अब है ये जीवन
दिखा दो सवेरा हे प्रभु महान
—- हिमांशु मित्रा ‘रवि’—-