दास्तां मैंने अपनी सुनाई नहीं
सुनकर कहीं तेरी आँख भर आये नहीं,
इसी वास्ते दास्तां मैंने अपनी सुनाई नहीं।
न थे उम्मीदों के हौसले
थे पथरीले से रास्ते,
तन्हाई का साथ था
गमों का बोझ था,
न थी कोई आस
रुकी-रुकी सी थी सांस,
क्या कहूँ, क्या न कहूँ
दर्द अपना खुद ही सहूँ,
छुपा लूँ शिकन, नज़र तुमसे मिलाई नहीं,
इसी वास्ते दास्तां मैंने अपनी सुनाई नहीं।
उजड़ी हुई थी बस्ती
मँझधार में थी कश्ती,
किनारा कोई तो मिलता
उलझन कोई तो समझता,
पल-पल ज़िंदगी थी इम्तिहान
हवाले कर दी थी अपनी जान,
कहीं तो दिखता आस का दीया
बुझी थी लौ, रो रहा था जिया,
दिल न भर आये, बात अधरों पर लाई नहीं,
इसी वास्ते दास्तां मैंने अपनी सुनाई नहीं।
रचयिता–
डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’