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15 May 2023 · 1 min read

दानवता

दानवता (कविता)

बना कर ज़िंदगी को जंग दानवता बढ़ाते हैं
सियासी चाल शतरंजी बिछा शकुनी लड़ाते हैं
बदल कर गिरगिटी सा रंग रिश्तों को मिटाते हैं
बने ये कंस बहनों को यहाँ जी भर सताते हैं।

लहू का रंग काला है कहीं इंसानियत सोती
यहाँ नफ़रत भरी सत्ता महल हैवानियत होती
बिकी जो आबरू घर की तड़पती माँ यहाँ रोती
लुटा धन संपदा अपनी बुढ़ौती पूत को खोती।

बहा कर प्रीत का सागर सहज सम भाव उपजाएँ
बनें हम नेक फ़ितरत से चलो इंसान बन जाएँ
मिटा कर नफ़रती दौलत सरस हम नेह बरसाएँ
भुला कर मजहबी रिश्ते अमन सुख चैन हम पाएँ।

स्वरचित/मौलिक
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)

मैं डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना” यह प्रमाणित करती हूँ कि” दानवता” कविता मेरा स्वरचित मौलिक सृजन है। इसके लिए मैं हर तरह से प्रतिबद्ध हूँ।

Language: Hindi
161 Views
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