*दादू के पत्र*
दादू के पत्र
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(श्री सुरेश राम भाई की आत्मीयता का स्मरण)
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मेरे संग्रह में श्री सुरेश राम भाई के दो पत्र हैं। एक सैनिक काव्य-पुस्तक के प्रकाशन पर तथा दूसरा गीता-विचार के प्रकाशन पर । दोनों पत्रों में आत्मीयता भरी हुई है। यह आत्मीय भाव ही इस समय स्मरण आ रहा है।
मेरी सुरेश राम भाई जी से केवल एक बार मुलाकात हुई । रामपुर में चूने वाली गली (मिस्टन गंज) में वह अपने निवास पर ठहरे हुए थे । मुझे उनके दर्शनों तथा कुछ देर वार्तालाप का सौभाग्य मिला । यह इंटरव्यू नहीं था लेकिन फिर भी मैंने उसे एक भेंटवार्ता का रूप देकर सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक में प्रकाशित करा दिया। जब भेंटवार्ता प्रकाशित हुई तब शाहजहांपुर के सुधीर विद्यार्थी जी ने प्रशंसा का एक पत्र लिखा किंतु सुरेश राम भाई जी ने यह आपत्ति प्रकट की कि भेंटवार्ता में कड़वाहट भेंटकर्ता को कैसे नजर आ गई ? उनकी दृष्टि में जीवन में यह नहीं होनी चाहिए थी । मैंने इस बात पर बहुत ज्यादा गौर नहीं किया था । देश की दुरावस्था पर उनकी राय व्यक्त करते समय मैंने कड़वाहट शब्द का प्रयोग कर लिया था । किंतु इससे यह तो पता चलता ही है कि उनके भीतर कितनी शांत ,सौम्य तथा निरंतर प्रसन्नता की मुद्रा में बने रहने वाली भावना विद्यमान रहती होगी । यह एक असाधारण बात होती है।
सचमुच सुरेश राम भाई जी में गीता के स्थितप्रज्ञ भाव की उपस्थिति सदा रही। यह न होती तो क्या वह अच्छे – खासे कैरियर का मोह छोड़कर विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में पीछे – पीछे लगे होते ? अगर वह अपना कैरियर बनाने के लिए प्रयत्नशील हुए होते तो बड़े प्रशासनिक अधिकारी अथवा उच्च राजनेता बन सकते थे । लेकिन यह उनकी मंजिल नहीं थी। आत्मीयता के भाव का विस्तार ही उनके जीवन का लक्ष्य था । भूदान इसी का एक मार्ग था । जब वह अपने पत्र में दादू शब्द का प्रयोग मेरे और अपने संबंधों को रूपायित करने के लिए करते थे ,तब यह आत्मीय भाव की स्थापना ही तो थी ! दादू का पारिभाषिक अर्थ दादा अथवा घर का एक बुजुर्ग और बड़ा व्यक्ति होता है । स्वयं को वह केवल सुरेश राम भाई भी लिख सकते थे ,पर उन्होंने दादू कहकर एक ऐसा संबंध जोड़ दिया जो हमेशा जीवित रहेगा । दादू के शब्द-प्रयोग ने इन पत्रों को और भी मूल्यवान बना दिया है । दोनों पत्र इस प्रकार हैं :-
🏵️🏵️(प्रथम पत्र)🏵️🏵️
इलाहाबाद 1999 अक्टूबर 18
भैया चिरंजीव रवि बाबू
सस्नेह शुभाशीष
कई महीने से “सहकारी युग” में तुम्हारी कोई रचना न दिखने पर हैरत हो गई लेकिन परसों जब 11 अक्टूबर का अंक आया तो पता चला कि तुम ” सैनिक ” नामक काव्य लिखने में समाधिस्थ हो गए थे। इसके लिए तुमने जिस निष्ठा और तत्परता से परिश्रम किया ,उसकी कल्पना अवश्य कर सकता हूँ। इस वास्ते हार्दिक बधाई और स्नेह पूर्ण अभिवादन ।
किसी पुस्तक को पढ़े बिना या उसके लेखक से मिले बगैर उस पर राय देना तो ज्यादती होगी मगर इतना स्पष्ट है कि यह रचना तुम्हारे मौन कर्म योग की प्रतीक है और इसलिए उसकी सार्थकता तथा प्रासंगिकता के बारे में मुझे कोई शंका नहीं है।
सफलता तपस्या माँगती है लेकिन असफलता कहीं ज्यादा भीषण तपस्या का तकाजा करती है । महत्व परिणाम का नहीं, उसके हेतु की गई कठोर साधना का है। इसीलिए तुम्हारे पराक्रम पर फूला नहीं समाता हूँ।
शाबाश बेटे रवि !!
पुनः बधाई और मंगल कामनाओं के साथ
स्नेहाधीन
दादू
( सुरेश राम भाई )
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🏵️🏵️🏵️(द्वितीय पत्र)🏵️🏵️🏵️
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दिल्ली 1988 मार्च 14
भैया चिरंजीव रवि बाबू
सस्नेह शुभाशीष
रजिस्ट्री से भेजी रचना के लिए अनेक धन्यवाद
“समर्पण” से पता चला कि आदरणीय बाबू भिखारी लाल जी तुम्हारे बाबा थे । उनको मैं चाचा जी कहता था । उनकी सज्जनता, सरलता और सौम्यता से सारा रामपुर परिचित था । उनकी एक बेटी ,बहु रानी सौ. शारदा मेरे छोटे भाई (चाचा जी के सुपुत्र) चिरंजीव ऋषि राज से ब्याही है । यानी चिरंजीव ऋषि तुम्हारे फूफा हैं । इस नाते तुम मेरे भी भतीजे हो । अपने अभिन्न अंग।
ऐसी हालत में तुम्हारी पुस्तक पर राय क्या दूँ ! कैसे दे पाऊँगा ? कभी मिलने पर गीता और गीता-विचार पर खूब बातें करेंगे।
लेकिन यह देख कर बड़ी खुशी हुई कि तुमने गीता को पढ़ा, उस पर विचार किया और अपने विचारों को कलमबद्ध किया। इस पर शाबाशी दूँगा और अपनी छड़ी की मूठ से पीठ पर एक ठोंक भी ।
पुनः बधाई और मंगल कामनाओं के साथ ।
दादू के आशीर्वाद
(सुरेश राम भाई)
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451