दशरथ श्रवण कथा ( सारछंद )
छन्न पकैया छंद
16/12/28
गुडगुड गुडगुड शब्द भेदता ,
मारा था हाथी में ।
लेकिन सर तो बिधा जानकर,
मानव की छाती में ।
हाय हाय कर प्राण छोड़ता,
छन छन तड़प रहा था।
पास गया तो मुझे देखकर,
उसने यही कहा था ।
सीने में सर लगा आपका,
हुआ रक्त से लथपथ ।
जीने का पथ शेष नहीं है,
हे नृप मामा दशरथ ।
मैं तो चला आपके हाथों,
स्वयं मौत को वरने।
मरने का ऐसा विधान ही,
रचा हुआ ईश्वर ने।
अब तुम मेरे मात पिता को,
पानी जाय पिला दो।
किसी तरह से संबोधित कर,
मन में धीर दिला दो ।
मातपिता का प्रबल भक्त वह,
नहीं जरा भी हेटा ।
ज्ञानवती वा पिता शांतवन,
का अति प्यारा बेटा।
वणिक शांतवन से बहिना ने,
छुपके प्यार किया था
कुल की मर्यादा का कपडा,
मानों तार किया था।
त्याग दिया इस कारण उसको,
रखा न कोई नाता।
कहाँ रही फिर किस हालत में,
जाने इसे विधाता।
अगर बहिन को किसी वजह से,
ठुकराता है भाई।
उसका फल अति बुरा मिला है,
वेद नीत यह गाई।
मरा भानजा मेरे हाथों,
मरे बहिन बहनोई।
पुत्र शोक का शाप दे गये।
अब जाने क्या होई।
कोई किसी को प्यार करे तो,
बैर भाव ना पाले।
जाति पांति का भेद न देखे,
मान सहित अपनाले।
किया विरोध प्यार का जिसने,
प्यार नहीं मिट पाया ।
पर विरोध के कारण उसने,
अंत बुरा फल पाया।
बाण शब्द भेदी क्यों चूका,
इसकी बड़ी व्यथा है ।
घटी जिंदगी में जो घटना,
उसकी एक कथा है ।
भिन्न-भिन्न यह पड़ीं कथायें
भारत जन मानस में।
झूठ साँच इतिहास क्या पता,
भरीं भक्ति के रस में ।
सार छंद में सार सार को,
चुनकर गुरू बताया।
हरि अनंत हरि कथा अनंता,
यही समझ में आया।
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश
12/11/22