दर्पण
झूठ बोलता है
दर्पण
हम जो दिखते हैं
वो हैं कहाँ
दर्पण दर्प से चूर
और तुम गर्व से
कभी फुर्सत में देखना
दर्पण
तुमको तुम्हारे अक्स
बिखरते दिखाई देंगे
तुमको अपना ही
सौंदर्य काटेगा
तुम्हारे माथे पर पड़ी
गर्वित रेखायें कहेंगी
इतराओ और इतराओ
इठलाओ और इठलाओ
अभी समय जिंदा है
मैं भी जिंदा हूँ और
देखो दर्पण भी जिंदा है
वक़्त के साथ तुम भी
बदल गए
ये दर्पण भी झूठ बोलने लगा
कैसे जान सकोगे तुम
सच्चाई
अंतरात्मा घर्षण से दूर
और तुम दर्पण में चूर।
इसलिये कहता हूं मैं
न देखा करो दर्पण।
वो बोलता है झूठ
नही करता सत्य का
संधान
वो दिखाता है वो
जो तुम देखना चाहते हो
असत्य पर सत्य का वर्क
देह नेह का ऋत आवरण।।
जिस दिन दर्पण दिखाने लगेगा
तुमको तुम्हारा मानस
भूल जाओगे देखना
दर्पण….सच यही है प्रिय
दर्पण झूठ बोलता है।
* सूर्यकान्त द्विवेदी