“दर्पण बोलता है”
दर्पण कितना सपाट होता है,
सब जस का तस लौटा देता है।
दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता है,
सबको सच्चाई का एहसास करा देता है।
किसी से ना छुपाव ना दुराव,
सबसे ही अपना रिश्ता बना लेता है।
दर्पण बोले जैसे करो,हम वैसे करें,
हम तो आंखों से बात करें भाषा से परे।
जैसे हो तस्वीर तेरी वैसे ही मैं लाता हूँ,
मेरे सामने कभी झूठ ,नही टिक पाता है।
खुश में खुश हो जाऊं,दुख में दुखी हो जाऊं,
यही मेरा स्वभाव है, मैं सज्जन कहलाऊं।
अपने को साफ रखो,करो मुझ पर विश्वास,
गुण मेरा तुझको मिले, दूंगा मैं एहसास।
हमसे सभी का नाता है, सब मेरे सामने संवरता हैं,
अनेको चेहरे बनकर ,भी यह दिखाता है ।
दर्पण कभी झूठ नही,बोलता है,
पक्षपात किसी से ये नही करता है ।
जैसा हो प्रतिबिम्ब ,वैसा ही दिखाता है,
दर्पण प्रेम ,पूजा का पाठ भी सिखाता है ।
यह दर्पण अनेक बात बताता हैं,
जा रहे हो अगर देवता से मिलने ।
तो इतनी कृपा किये जाओ,
अपनी फूलों की थाली में,एक दर्पण लिए जाओ।
आरती फूल से प्रसन्न हो ,जैसे वो कर लेना,
जब भाव देखें देवता तो,सम्मुख दर्पण धर लेना।
दर्पण ने कहा कुछ ,घड़ी निहार लो,
आये पिया तो खुद को संवार लो।
बिखरे केशों को संवार लो,
बिंदियाँ सजा के, लाली लगा के ।
सिंदुरा सँवार लो,
कजरा नयन में लगा के नजरा उतार लो ।।
दर्पण तो हर बला की नजरें उतार लें,
दर्पण ये बोले सब हमसे प्यार ले।
अगर टूटा तो फिर कभी ये ना जुड़ता,
रहे एक बनकर, यह दर्पण है सिखलाता।
लेखिका:- एकता श्रीवास्तव ✍️
प्रयागराज