दर्पण की तलाश
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सामने दर्पण के खड़े होने से डरता है आदमी।
क्षणभर में ही हजारों मौत मरता है आदमी।
आ जाता है तमाम सारा करतूत सामने
जीवन भर जो-जो करता है आदमी।
उसे ईश्वर के नहीं,खुद के सामने होना होता है खड़ा।
अपने सारे गुनाहों को बारीकी से जानता है आदमी।
अपने से किए खुद के सवालों से भागता है आदमी।
दुनियादारी ऐसी है कि या तो मार कर या मर कर
जीवन जीता है आदमी।
जो मार नहीं सकता उसे पड़ता है जीना मर-मर कर।
यह मृत्यु देख दर्पण में अनचाहा जहर पीता है आदमी।
सर्वगुण सम्पन्न किन्तु,खिन्न मन से जीता है आदमी।
दर्पण की तलाश प्रारंभ होती है जब सामने खड़ा होता है आदमी।
दर्पण की तलाश खत्म होती है जब आँख चुराता है आदमी।
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