दर्द की मानसिकता
डॉ ० अरुण कुमार शास्त्री एक ? अबोध बालक – अरुण अतृप्त
दर्द की चादर से
वैसे तो मेरा कोई लगाव न था ।।
न चाहते चाह्ते ये
न जाने कैसे मेरे अंग से आ लगी
पहेले तो मै कुछ समझा ही नही
इसके इरादे क्या हैं ।।
धीरे धीरे इसने अपने आगोश में
मुझको जब कसना शुरु किया ।।
तब कहीं जाके मुझे
इसके कुटिल भाव का भान हुआ ।।
बहुत देर हो चुकी थी
तब तलक अब वपिसी मुश्किल थी ।।
दर्द की चादर से
वैसे तो मेरा कोई लगाव न था ।।
न चाहते चाह्ते ये
न जाने कैसे मेरे अंग से आ लगी ।।
आज सोचता हूँ हम सब
इस दुनिया में क्युं भेजे जाते है ।।
आज भरोसे से कह सकता हूँ
हमारे बुरे कर्म ही ये सब करवाते हैं ।।
वस्ल की शब हो मौजू हो इश्क का
मिज़ाज़ मौसम का शायराना हो अगरचे।।
तो क्या बात है
तेरे होने से ये दर्द दब जाता है ।।
तेरी मौजूदगी में इसका सिलसिला
थम जाता है।।
मैं नही चाहता तू जाए मुझको छोड़ कर
वक़्ते हालात में ये कहाँ हो पाता है।।
दर्द की चादर से
वैसे तो मेरा कोई लगाव न था
न चाहते चाह्ते ये
न जाने कैसे मेरे अंग से आ लगी
वाकये अनगिनत अनजाने पल
इंसानी फलसफे , मजबूरीयों के हल
अचेतन सी बेबसी और उनके प्रतिफल
प्रारब्ध न बनेगे तो कैसे कर्म फल
आज सोचता हूँ हम सब, किस कारण
मृत्युलोक के सहयात्री क्यूँ बनते हैं
अच्छे बुरे मीठे कडवे अनुभवों से
वक्त बे – वक्त क्यूँ गुजरते हैं
दर्द की चादर से वैसे तो मेरा
कोई लगाव न था ,
न चाहते , चाह्ते ये
जो जाने अनजाने ,
कैसे मेरे अंग से आ लगी
आज सोचता हूँ ये सब, अकारण तो नहीं