दर्द की आह
दर्द की चुभन
हो परिणत
बनती आह
दर्द से दग्ध
हृदय संतप्त
झेलता दावानल सा दाह
रिसता हो रक्त
खुला हो घाव
भर जाता लेकर वक्त
खेलती दवा जो अपना दाँव
दर्द बहता है आँखों से
बनकर तरल नमक की धार
सह जाता मारक तीर
नहीं झिलते शब्दोंं के वार
छलनी कर जाते हैं यूँ
के जैसे चुभे कंटीली तार
घातक ऐसे लगते हैं
जैसे दो धारी तलवार…