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20 Mar 2022 · 1 min read

दरख्त

दरख्त हो गई हूँ
बहुत ही सख्त हो गई
चेतना की जड़े बेहद गहरी हो गई
अनुभव की पपङियां झड़ती है
और चढ़ती है
उम्र की शाख पर बढ़ती है,फैलती है
कभी चटक जाती हूँ,
किन्तु भीतर सब वैसा ही है
जीवनरस से लबालब
नूतन ,अहलादित,कोमल…
सुकून से भरी घनी घनी छाँव,
हरीतिमा लिए भीगी भीगी लिबास
में मन को समेट लेती,
एकान्त किन्तु सन्नाटे में शोर लिए
र्सांसे गहरी होती गई ,
भोर की भीगी तलछट में
टूटते ख्वाब के ढ़ेरो शबनमी अहसास में
अनगिनत बदलते मौसम को झेलते
बहुत ही सख्त हो गई हूँ
हाँ! अब मैं दरख्त हो गई हूँ।
.…………….पूनम कुमारी

Language: Hindi
2 Likes · 388 Views
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