दरख्त
दरख्त हो गई हूँ
बहुत ही सख्त हो गई
चेतना की जड़े बेहद गहरी हो गई
अनुभव की पपङियां झड़ती है
और चढ़ती है
उम्र की शाख पर बढ़ती है,फैलती है
कभी चटक जाती हूँ,
किन्तु भीतर सब वैसा ही है
जीवनरस से लबालब
नूतन ,अहलादित,कोमल…
सुकून से भरी घनी घनी छाँव,
हरीतिमा लिए भीगी भीगी लिबास
में मन को समेट लेती,
एकान्त किन्तु सन्नाटे में शोर लिए
र्सांसे गहरी होती गई ,
भोर की भीगी तलछट में
टूटते ख्वाब के ढ़ेरो शबनमी अहसास में
अनगिनत बदलते मौसम को झेलते
बहुत ही सख्त हो गई हूँ
हाँ! अब मैं दरख्त हो गई हूँ।
.…………….पूनम कुमारी