दरख़्त
दरख़्त
दिल आज भी उसी ताबीर में बैठा है
जुस्तजू ए इश्क़ में अभी फ़ना होना है
वो मुँडेरों के काग भी कहीं खो गए
वो धूमिल सी शामें भी अब नहीं रही
वो चुलबुली हसरतें,लुका छुपी बादलों की
कहाँ चले गए सब ,अब सिर्फ़ एक रूदन सा कोना है,
वो स्याह सी रातों में शुभ्रता सी धवल चाँदनी,
बन हृदय के जो उद्ग़ार तुमने छेड़ें है
हम भी उसी आस में बैठे है
होगी कभी जो आज़माइशे अदावत
हम भी दरख़्तों के समान जड़ हो जाएँगे
मोहब्बत में जान निसार करेंगे
पर यूँ उनके रास्ते में ना आयेंगे ।
मेरी रूह में समाई है उनकी हर एक ख़ुशबू
बड़े क़रीब से उन्हें महसूस किया है।
डॉ अर्चना मिश्रा