दरख़्त
क्यों नहीं बैठता दरख़्त
मैं ऊँचे दरख़्त की घनी छांव में बैठा था
मैं ऊँचे दरख़्त की घनी छांव में बैठा था
उठ खड़ा हुआ, पूछा उससे
क्या तुम बैठे हो कभी
एक टाँग पर खड़े हो
आकाश की ओर सर किये
बादलों से बातें करते हो
यह किस तरह की साधना है
अजल तक यूँही डटे रहते हो
वो कहता है
वो कहता है
देख
देख उपर की डाल पर
चिड़िया आ कर बैठी है
तिनका तिकना जोड़ घोंसला बनाएगी
अंडे देगी, दाना चुगेगी नन्हें परिंदो को खिलाएगी
जब वो बड़े हो जाएँगे तो ऊँची डाल से धक्का देगी
ताकि वो उड़ सकें
में बैठ गया तो उनको यह उड़ान कहाँ से मिलेगी
फिर कहता है
फिर कहता है
देख
देख नीचे की तरफ़ उन चींटियों को
मेरे तने में घुस कर रहती हैं कहीं
उनका भी तो मन करता होगा आसमाँ छूने का
आती है कोई उपर तक कभी
तकती है सितारों को रात भर
औंस की शक्कर भरती हैं
छूती है बादल सभी
में बैठ गया तो उनको यह उफ़्क का मंज़र कहाँ से दिखेगा
हाँ
हाँ एक दिन बैठूँगा ज़रूर
सबका वक़्त आता है
पर उस से पहले
थोडी ओर ज़िंदगी बाँट लूँ अभी
थोडी ओर ज़िंदगी बाँट लूँ अभी
@संदीप