” दफ्तरी परिवेश का मीठ्ठा व्यंग्य “
” दफ्तरी परिवेश का मीठ्ठा व्यंग्य ”
लगभग दस दिन का वो अचंभित सा माहौल
तीतर बीतर से घूम रहे थे समस्त कर्मचारीगण
मीनू ने सोचा क्या हो गया है आखिर सभी को
तीसरे दिन पता चला कि नाबार्ड आयी हुई है,
समय से पहले आकर बैठ जाते बड़े अधिकारी
सोच कर शायद कि नाबार्ड पता नहीं क्या करेगी
अरे भोर प्रभात में थोड़ी निरीक्षण करेगी नाबार्ड
रात में मिठ्ठी नींद तो नाबार्ड को भी आयी हुई है,
कुछ दिन बाद नंबर आना था हमारी शाखा का भी
जोर शोर से तैयारियां शुरू होने फिर लग गई थी
सूचनाएं जो बनती हैं मैंने भी तैयार कर ली, लेकिन
महसूस हुआ सहकर्मी पता नहीं क्यों घबराई हुई है,
काजू, बादाम, फल, साबुन, गमले ना जाने क्या क्या
आदर सत्कार धरा परे बेफिजूल का दिखावा फैला
प्रबंधक ने करवाया जब दरवाजे के सुर्ख लाल रंग
ऐसा लगा मानों जैसे किसी की बारात आई हुई है,
समय पर अगर सब कर लेते सारे काम अपने अपने
ख़ुशी ख़ुशी से नाबार्ड का निरीक्षण फिर करवा पाते
ना दिखती ललाट पर लकीरें चिंता और उलझन की
परिस्थिति ना होती ये आज जो यहां गहराई हुई है,
स्वागत सत्कार तो सही है लेकिन जी हुजूरी है क्यों
समय और धन दोनों अनायास ही बरबाद करें क्यों
हो क्या गया है सरकारी दफ्तरों को पता ही नहीं जी
कागज तो हैं अधूरे लेकिन प्लेटें जरूर सजाई हुई हैं।