त्राहि त्राहि
तपती छाती वसुन्धरा की तरुवर बिन अकुलाई है
सूना आंचल कहे व्यथा अब नदिया की करुनाई है
सूख गये तालाब बाबड़ी कुओं के दिन बीत गये
गौरैया कपोत काग अब दूर खंजन की प्रीत भये
देख लोलुपता मानव की मानवता ही लजाई है
सुख गई है दूब दुधिया, रोता हरा पुदीना है
सब सूना पानी के बिन तपता जेठ महीना है
त्राहि त्राहि जल नर्मल की प्याऊ कहीं लगाई है
गाँव छोड़े शहर बसाए ए.सी. तुमने लगाए हैं
मोबाइल के हद प्रयोग ने सच्चे मीत भुलाये हैं
तरु की ऑक्सिजन छाया याद आज फिर आई है
फिर से जंगल रोपें भू में जल का स्तर ऊपर होगा
छाया नीड संग मिलेगी नियंत्रित तापमान होगा
चाहे बचाओ सभ्यता अपनी पुकार यही अब आई है
……………………………………………………………….