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29 May 2024 · 1 min read

त्राहि त्राहि

तपती छाती वसुन्धरा की तरुवर बिन अकुलाई है
सूना आंचल कहे व्यथा अब नदिया की करुनाई है

सूख गये तालाब बाबड़ी कुओं के दिन बीत गये
गौरैया कपोत काग अब दूर खंजन की प्रीत भये
देख लोलुपता मानव की मानवता ही लजाई है

सुख गई है दूब दुधिया, रोता हरा पुदीना है
सब सूना पानी के बिन तपता जेठ महीना है
त्राहि त्राहि जल नर्मल की प्याऊ कहीं लगाई है

गाँव छोड़े शहर बसाए ए.सी. तुमने लगाए हैं
मोबाइल के हद प्रयोग ने सच्चे मीत भुलाये हैं
तरु की ऑक्सिजन छाया याद आज फिर आई है

फिर से जंगल रोपें भू में जल का स्तर ऊपर होगा
छाया नीड संग मिलेगी नियंत्रित तापमान होगा
चाहे बचाओ सभ्यता अपनी पुकार यही अब आई है

……………………………………………………………….

Language: Hindi
2 Likes · 154 Views
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