Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
7 Dec 2023 · 6 min read

तेवरी : व्यवस्था की रीढ़ पर प्रहार +ओमप्रकाश गुप्त ‘मधुर’

———————————-
‘तेवरी-आन्दोलन’, कुछ प्रकाशन, एक समीक्षा
आलोच्य-
1-कबीर जिंदा है- सम्पादक- रमेशराज
2-इतिहास घायल है- सम्पादक- रमेशराज
3-एक प्रहार, लगातार-लेखकः दर्शन ‘बेजार’
4-अभी जुबां कटी नहीं- सम्पादक-रमेशराज
5-तेवरीपक्ष, अंक-3, सम्पादक-रमेशराज
आन्दोलन के संदर्भ राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक या साहित्यक हों, उसकी मौलिक चेतना विद्रोहात्मक और स्वर तिक्त तथा उग्र हुआ करता है। किसी व्यवस्था के बोझ-तले कसमसाते हुए बहुतेरे लोग परिवर्तन की प्रतीति से अपने तेवर उभार लेते हैं और अपने वैयक्तिक तथा सामूहिक प्रहार से व्यवस्था पर निरंतर चोट करते रहते हैं। यह सही है उनमें से अनेक किसी सर्जनात्मक सोच से अनुप्राणित नहीं होते हैं। बस पुरातन के विरुद्ध जेहाद करना ही उनका अभिप्रेत होता है। परन्तु युग-परिवर्तन की प्रक्रिया में उनका भी योगदान कुछ कम करके आंकना अनुचित होगा क्योंकि जब तक कुछ लोग पुराने को तोड़कर मलवा हटाने का प्रारंभिक कार्य नहीं करेंगे तब तक तामीर के शिल्पकारों को हाथ पर हाथ धरकर बैठना ही पड़ेगा।
अतः तेवरी आन्दोलन की अलख जगाने वाले अलीगढ़ के युवा साहित्यकार निश्चय ही एक स्तुत्य और श्लाघनीय कवि-कर्म में प्राण-प्रण से जुटे हुए हैं। इनमें से कुछ लोग व्यवस्था की रीढ़ पर प्रहार करते हुए उसे गिराने में सन्नद्ध हैं तो दूसरे तेवरीकार नई दिशाओं में मंजर पेश करने में पूरी ईमानदारी से लगे हुए हैं।
‘तेवरी’ नामकरण अजीबोगरीब-सा लगता है क्योंकि उर्दू-लुगत या शब्दकोष में ‘तेवर’ शब्द का तो अस्तित्व है ‘तेवरी’ का नहीं। तेवरीकारों के फतवे या घोषित ‘मैनीफैस्टो’ में यह स्वीकार किया गया है कि उर्दू-काव्य में ‘ग़ज़ल की सरसता, रूमानियत और जेहनियत से प्रभावित होकर स्व. दुष्यंत कुमार ने हिंदी-कविता में ग़ज़ल लिखने की पहल की।
‘आपातकाल ने तेवरी के सीने में तिलमिलाते विद्रोह के ज्वालामुखी भर दिये’। [ पृष्ठभूमि-अभी जुबां कटी नहीं ]
उपर्युक्त कथन के अनुसार स्व. दुष्यंत कुमार ने हिंदी-कविता की हाट में ग़ज़ल का आकर्षक कलेवर लेकर उसमें विद्रोह का चिंतन अवेष्ठित कर उसे एक मौलिक बानगी के रूप में प्रस्तुत किया और दुष्यंत कुमार कृत हिंदी गजलों की सर्वप्रियता और ग्राह्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाना दुष्कर होगा। लेकिन दुष्यंत कुमार ने अपनी रचना-धर्मिता को तेवरी-संज्ञा से कभी विभूषित किया हो-ऐसा तो याद पड़ता नहीं। यह भी श्री नीरज, श्री बलवीर सिंह रंग, श्री साहिर लुधियानवी और श्री सूर्यभान गुप्त ने अपनी ग़ज़लनुमा रचनाओं को ‘तेवरी’ नाम से अभिहित किया हो, कभी यह भी सुनने में नहीं आया। तो इन नामधारी प्रख्यात कवियों को तेवरी-आन्दोलन के खेमे में ले आना यदि प्रामाणिक है तो इस आन्दोलन के जन्मदाताओं और पक्षधरों की साहित्यक मुहिम की एक भारी जीत समझी जानी चाहिए।अन्यथा आन्दोलन को बालू की दीवार के सहारे खड़ा करने का बाल सुलभ प्रयास ही कहा जायेगा।
ग़ज़ल शब्द स्त्रीलिंग है, अतः उसका हिन्दीकरण करते हुए लिंगानुरूप तेवरी नाम दिया जाना भाषायी उठापटक है, महज आन्दोलन के बपतिस्मे की गरज से उसके पीछे अकाट्य तर्क, संस्कार और संगति ढूंढ़ना मृग-मरीचिका ही होगी। मेरे विचार से प्रचलित शब्द ‘तेवरी’ बखूबी चलता।
फिर भी यह निर्विवाद है कि अपने स्पष्ट,सपाट और सीमित उद्देश्य में तेवरी क्रम की रचनाएं पुरजोर और पुरअसर हैं। आज के आस्थाहीन युग में जबकि जीवनमूल्यों का भारी क्षरण हो रहा है और समाज की सतह पर कहीं टीले और कहीं गड्ढे नजर आते हैं, शोषकों के क्रूर पंजों में क्षत-विक्षत मानवता त्रस्त और असहाय होकर अधर में लटकी हुई है, भाव-प्रवण और संवेदनशील कवियों और खुशनवरों का मर्माहत होकर कड़ी कड़वी बातें कहना एक बड़ी जरूरत है और युग-धर्म भी कविता विषय-विलास और वाग्विलास की वस्तु नहीं, अंग्रेजी कवि मैथ्यु अनेल्डि के शब्दों में ‘जीवन की व्याख्या’ है।
तेवरी-आन्दोलन के कवियों ने दलित, शोषित और दग्ध समाज के निरुपाय आखेटों का पक्ष लेकर अपने पैने वाग्वाण अहेरियों पर चलाए हैं। कहना न होगा कि इन वाणों की अनी विषबुझी भी है-
खादी आदमखोर है लोगो!
हर टोपी अब चोर है, लोगो!
[अभी जुबां कटी नहीं ]
तेवरियों का मुखर स्वर कटु, उग्र और प्रहारक है लेकिन वर्ण्य-विषय की व्यापकता इन लघु रचना अभ्यासिकाओं की सार्थकता को चरितार्थ अवश्य करती है। शिक्षा की व्यर्थता, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, नारी-जाति का शोषण, राजनैतिक छल-छदम, सरकारी नौकरशाहों की काहिली, भूमिपुत्रों की व्यथा, जन प्रतिनिधियों की कथनी-करनी का अन्तर, भुखमरी, वर्गयुद्ध, गरज यह है कि तेवरीकारों ने विविध विसंगतियों पर अपनी पैनी लेखनी चलाई है। अनेक तेवरियां भिन्न-भिन्न कवियों की होते हुए भी समस्वर और समान अभिव्यक्ति की आलेखना प्रतीत होती हैं, अतः समीक्षक बहुत-सी तेवरियों में पिष्टपेषण और पुनरावृत्ति की झलक देखने की बात करेंगे। लेकिन जब वर्ण्यविषय लगभग एक जैसा हो और अनुभूति का अन्तःबिम्ब भी समान हो तो अभिव्यक्ति के धरातल पर अनेक कवि भी एक सी बात करने लगते हैं।
इन तेवरियों में रस-परिपाक्य या काव्यसौंदर्य का अन्वेषण करना बालू से रेशम निकालने जैसा होगा। तेवरीकारों ने ऐसा दावा किया भी नहीं है बल्कि वे तो सायास कोमलकांत पदावली से अपने को बचते रहे हैं। वे इतने संतुष्ट हैं कि उनकी तेवरियों के प्रणयन से समाज की तंद्रा टूटे और सर्वहारा का सामूहिक संघर्ष,उत्पीड़न और अत्याचार के नए उत्साह ओर जिजीविषा से और तेज हो उठे।
इन तेवरी-संग्रहों में दर्शन बेजार कृत ‘एक प्रहार-लगातार’ इस आलेख की शुरूआत में कहे गये निर्माण कार्य जैसा है। अपेक्षाकृत संयम और पैने व्यंग्य की शैली में लिखी गई बेजार कृत तेवरियां विचारोत्तजक और भावपूर्ण हैं, यथा-
आदमी को अर्थ दे जीने के जो।
लाइए तासीर ऐसी कथ्य में।।

सड़क पर असहाय पाण्डव देखते।
हरण होता द्रौपदी का चीर है।।

जो हिमालय बर्फ से पूरा ढका है।
भूल मत ज्वालामुखी उसमें छुपा है।।

कुछ सियासी शातिरों की रोटियां सिकती रहीं।
राजनैतिक स्वार्थ में मेरा वतन जलता रहा।।

रहबरो! अब भी समय है, होश लो।
है तुम्हारी कौम पर इल्जाम क्यूं।
[ एक प्रहार ! लगातार ]
तेवरी-आंदोलन की उपादेयता को स्वीकारा जा सकता। साहित्य सागर में अनेक जल-धाराओं का आगमन और परस्पर विलयन होता है। तब सागर तट पर बैठे प्रेक्षक सागर की संयुक्त गहनता और व्यापकता से अभिभूत होते हैं । अलग-अलग जलधारा का आकलन करने में उनकी रुचि नहीं होती लेकिन जलधारा के सहारे-सहारे चलने वाले पथिक की दृष्टि में सागर की विशालता का एहसास नहीं होता है। वह जलधारा का कलरव और उसकी प्रगति की संगीत लहरी में खोया हुआ उसके प्रति समर्पित-सा रहता है। यही बात इन तेवरियों के संदर्भ में उल्लेखनीय है। विशद् हिन्दी साहित्य के सुदीर्घ विस्तार के परिप्रेक्ष्य में साहित्य के अध्येताओं को इन तेवरियों द्वारा जगाए गये रश्मि-आलोक का किंचित उद्भास हो सकेगा, इसकी संभावना जरा कम है लेकिन प्रगतिशील और क्रांतिकारी साहित्य के अन्वेषियों को तेवरी की भावभंगिमा चमत्कृत और उद्वेलित करेगी, यह विश्वास है।
काव्य और कला दोनों का मौलिक और चरम लक्ष्य, सत्य शिव और सुन्दर का भावबोध कराना है। यथार्थ सत्य का वहिरंग और स्थूल रूप है, वह समग्र सत्य नहीं। यथार्थवादी कविता अधूरे जीवन का प्रतिबिम्ब हो सकता है। उस व्यापक, सद्यःस्फूर्ति और स्पष्टणीय मानव-जीवन की परिकल्पना नहीं हो सकती जिसकी प्रतीति अतीत के लब्ध प्रतिष्ठित हिन्दी साहित्यकारों, विशेषतः कवियों को हुई। काव्य मात्र दर्पण नहीं है, ऐसा होता तो उसे कौन सहेजता। काव्य आलेखन और आव्हान है, उस वास्तविक मानव-जीवन का जो धरती की गर्दगुबार, मैल, मत्सर से ऊंचा उठकर मानवोचित ऊर्ध्वगामी प्रवृत्ति से सत्य, शिव और सुन्दर की सृष्टि करता है। हाथी के कान या सूंड या पैर को हाथी समझना दुराग्रह होगा। अतः तेवरी-आन्दोलन यथार्थ जीवन के एक छोटे पहलू को भले ही उजागर करता हो, उससे बड़े चित्रफलक को सरासर नजर अन्दाज करता है। यही उसकी सीमाबद्धता या संकीर्णता है। सर्रियलिज्म के सहारे भला क्या सौन्दर्यबोध सम्भव है?
एक बात और ! ‘कबीर जिंदा है’ संग्रह द्वारा कबीर की सपाट बयानी, सधुक्कड़ी, अक्खड़पन और पाखंड तथा परम्परा पर जबदस्त आघात करने की वीरोचित प्रगल्भता भले ही निगाह में रखी गई हो, कबीर की रहस्यमयता, अध्यात्म और सरल धर्म को पकड़ने में तेवरीकारों की असमर्थता और उनका बौनापन तेवरियों में कबीर के दोहों, साखियों और रमेनियों को आधुनिकीकृत करने का असफल प्रयास है।
‘अभी जुबां कटी नहीं’ की प्रस्तावना-पृष्ठभूमि में पृष्ठ में पृष्ठभूमि में पृष्ठ 2 पर सम्पादक द्वारा व्यास, तुलसीदास, बिहारी, विद्यापति, कालीदास, रत्नाकर और हरिओध जैसे कवियों को साम्राज्यवादी, तुष्टीकरण का साजिशी और पैरोकार कहना ऐसे ही है जैसे चन्द्रमा की ओर मुंह उठाकर थूकना। काव्य के उद्देश्य मर्म लाघव और युगधर्म की सम्यक जानकारी किये बिना ऐसे कथन सुरुचिकर नहीं कहे जा सकते हैं। आन्दोलन यदि गाली-गलौज में तब्दील हो जाता है तो उसे जीवन्त और प्रभावी रखना असंभव है। क्या तेवरीकार काव्य के विविध नियमों से अवगत है?
अस्तु, इन तेवरी-संग्रहों का इतना तो प्रकट महत्व है ही कि आज दुरूह मानव जीवन को झकझोरने में ये तेवरियां समर्थ हैं।

Language: Hindi
173 Views

You may also like these posts

"बचपन"
Dr. Kishan tandon kranti
नया साल
नया साल
umesh mehra
सही सलामत आपकी, गली नही जब दाल
सही सलामत आपकी, गली नही जब दाल
RAMESH SHARMA
मैं हूँ कौन ? मुझे बता दो🙏
मैं हूँ कौन ? मुझे बता दो🙏
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
3250.*पूर्णिका*
3250.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
कोई नयनों का शिकार उसके
कोई नयनों का शिकार उसके
सुरेन्द्र शर्मा 'शिव'
अर्ज किया है
अर्ज किया है
पूर्वार्थ
हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं
हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं
Neeraj Agarwal
साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि पर केंद्रित पुस्तकें....
साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि पर केंद्रित पुस्तकें....
Dr. Narendra Valmiki
तालीम का मजहब
तालीम का मजहब
Nitin Kulkarni
मिथिलाक बेटी
मिथिलाक बेटी
श्रीहर्ष आचार्य
मरहम
मरहम
Vindhya Prakash Mishra
ग़ज़ल
ग़ज़ल
Neelofar Khan
*दिन-दूनी निशि चौगुनी, रिश्वत भरी बयार* *(कुंडलिया)*
*दिन-दूनी निशि चौगुनी, रिश्वत भरी बयार* *(कुंडलिया)*
Ravi Prakash
जाड़ा
जाड़ा
नूरफातिमा खातून नूरी
पूर्वोत्तर के भूले-बिसरे चित्र (समीक्षा)
पूर्वोत्तर के भूले-बिसरे चित्र (समीक्षा)
डाॅ. बिपिन पाण्डेय
ग़म है,पर उतना ग़म थोड़ी है
ग़म है,पर उतना ग़म थोड़ी है
Keshav kishor Kumar
थोड़ी-थोड़ी बदमाशी करती रहनी चाहिए,
थोड़ी-थोड़ी बदमाशी करती रहनी चाहिए,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
**पी कर  मय महका कोरा मन***
**पी कर मय महका कोरा मन***
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
विष का कलश लिये धन्वन्तरि
विष का कलश लिये धन्वन्तरि
कवि रमेशराज
ख़ामोश
ख़ामोश
अंकित आजाद गुप्ता
भाषा
भाषा
Dinesh Yadav (दिनेश यादव)
O God, I'm Your Son
O God, I'm Your Son
VINOD CHAUHAN
झकझोरती दरिंदगी
झकझोरती दरिंदगी
Dr. Harvinder Singh Bakshi
dr arun kumar shastri -you are mad for a job/ service - not
dr arun kumar shastri -you are mad for a job/ service - not
DR ARUN KUMAR SHASTRI
पुष्प रुष्ट सब हो गये,
पुष्प रुष्ट सब हो गये,
sushil sarna
टीचर्स डे
टीचर्स डे
अरशद रसूल बदायूंनी
चंद पल खुशी के
चंद पल खुशी के
Shyam Sundar Subramanian
तुम आना
तुम आना
Dushyant Kumar Patel
जिनमें कोई बात होती है ना
जिनमें कोई बात होती है ना
Ranjeet kumar patre
Loading...