तू रूबरू हो कर भी हमसे मिलता नहीं
तू रूबरू हो कर भी हमसे मिलता नहीं
बेरुखी के धागे से ज़ख़्म सिलता नहीं
मिरी कैफ़ियत पे पत्थर भी रो पड़ा
मगर ये संगदिल इंसाँ पिघलता नहीं
जुगनुओं से तअल्लुक़ बनाए रखिए
अमावस में महताब निकलता नहीं
अपनी ख़ता गर उसने मान ली होती
वो शख़्स मिरी नज़रों से गिरता नहीं
उनके वादे पर हमको ऐतबार है ‘धरा’
उम्मीद का दिया इसलिए बुझता नहीं
त्रिशिका श्रीवास्तव धरा
कानपुर (उ.प्र.)