तुम जो रूठे किनारा मिलेगा कहां
झूठ का दौर है झूठा हर ठौर है
मेरे सच को ठिकाना मिलेगा कहां
जब तलक तेरे दिल मे हूँ महफूज़ हूँ
तुम जो रूठे किनारा मिलेगा कहां।
धूप जलती रही छांव ढलती रही
मेरा सावन क्यों मुझसे रूठा रहा
पांव छाले पड़े विष के प्याले बड़े
प्यास बुझती नही दरिया सूखा रहा
तुम जो बरसे नही प्यार बनके पिया
जिंदगी को सहारा मिलेगा कहां।
मेरे घर से गायब उजाला किये
वो सरे आम कीचड़ उछाला किये
तेरी बातों पे जब से अमल कर लिया
मैंने कीचड़ में लाखों कमल कर लिया
गर उम्मीद का सिलसिला थम गया
हौसलों को इशारा मिलेगा कहाँ।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा ‘विनीत’