तुम क्या जानो किस दौर से गुज़र रहा हूँ – डी. के. निवातिया
तुम क्या जानो किस दौर से गुज़र रहा हूँ,
डाली से टूटे फूल की तरह बिखर रहा हूँ !
ख़ाक से उठकर निखरने की कोशिश में,
जर्रा-जर्रा जोड़कर फिर से संवर रहा हूँ !
दर्द-ओ-ग़म के ज्वार भाटे डूबा कई दफा,
वक़्त की लहरों संग धीरे धीरे उबर रहा हूँ !
वक्त और हालातों ने गिराया पग-पग पर,
गिर-गिरकर हर एक बार मैं उभर रहा हूँ !
घटता हूँ, कभी बढ़ता हूँ, सुबह-शाम सा मैं,
पारे की तरह से आजकल चढ़ उतर रहा हूँ !
सीख लिया ज़माने की ताल से ताल मिलाना,
खुद को भी अब लगने लगा की सुधर रहा हूँ !!
___डी. के. निवातिया ___