तुम्हें एहसास नहीं
कविता-
तुम क्या जानो क्या होती है
तन्हाई, चीखती खामोशी
तुम्हे एहसास नहीं कराया मेने
बंद कमरे मे केद घुटन का
किसी की रूह से जुडकर
उसका वजूद लूटने वाले
खुद की तलाश मे मारा मारा फ़िर रहा
वो आवारा
वो चिलमिलाती धूप सी चुभती
तेरी यादे, आंखो में खून ला देती हैं
लेकिन
तुम तो ऐसे लोगों मे घिरी हो
जेसे पतंग कट कर हवा के साथ नाचती है
उस धागे को गौर से देख ए बेगेरत
तुझे नाज़ों से सम्भाला जिसने
अपने रुमानी अंदाज़ से लुभाया जिसने
रातो को सजाया जिसने
दूसरे से मोहब्बत जताता तेरे गुरूर
एक बारी ऐसा तोडना है
आ गिरे शाख से टूटे पत्ते की तरह
मेरी बाहों मे,
हवा का रुख ऐसा मोड़ना है
टूट कर बिखरेगी
आयेगी मेरी राह मे गिड़गिडाती हुई
करवाऊगा हर उस दर्दे जख्म का एहसास
जो हर रोज़ तू मुझे देती है
इक इक अश्क
दरपर्दा होकर जहन मे क्रांति ला रहा है
आंख से निकाल दर्द चार दीवारो मे कराहकर
छुपाया है मेने
हुस्न पे नाज़ बहुत है तुझे ए नाजनीन
गैरो को आशिक बनाती है
तड़फ़ेगी जब बिकेगी हुस्ना दो कोडी में
गैरो के बाज़ार मे
वक्त अभी है लौटकर आज़ा सितमगर
अभी जेहन में ऐतबार बाकि है
कल तुझे फरागत ना थी आज मुझे नहीं
कहने को तैयार
वर्ना साकी है !
लेखिका- जयति जैन (नूतन), रानीपुर झांसी उ.प्र.