तुममें मैं कहाँ हूँ ?
आज भी ढूँढ़ रही हूँ
खुद का अस्तित्व,
तुम्हारी आँख में,
तुम्हारे हृदय में,
तुम्हारी हर बात में ।
कभी लगता है,
कहीं तो में हूँ; तुममें
और कभी महसूस होता
बहुत हूँ तुममें ।
पर जब मेरे हाथ
खाली होते,
मेरा अस्तित्व घट रहा होता
तो तुममें संचित “मैं”
जब भी पाना चाहती
खुद को पूरा करना चाहती
खाली हाथ ही लौटती ।
बार-बार ये खाली लौटना
मन को आहत करता है ।
उस आहत कांपते मन को
मस्तिष्क जब थामता है
तो वह बोल उठता है,
तुम में ‘मैं नहीं हूँ ‘
जरा भी नहीं हूँ ।