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तानाजी पवार: जिनके हाथों में सोने और चॉंदी के टंच निकालने का हुनर है
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( लेखक: रवि प्रकाश बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997 615 451)
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तानाजी पवार की आयु लगभग 46 वर्ष है। 21 मई 1978 को महाराष्ट्र में जन्म हुआ था। 13 वर्ष की आयु में सोने चॉंदी के टंच निकालने का हुनर सीखने के लिए मेरठ गए थे । वर्षों मेहनत करके अपने आत्मीय जनों के सहयोग से यह हुनर सीखा था।
सत्तर के दशक के आखिर में महाराष्ट्र के कुछ प्रतिभाशाली व्यक्तियों ने चांदी को परंपरागत ‘थकिया’ बनाकर शुद्ध करने की परिपाटी के स्थान पर टंच निकालने का फार्मूला खोजा। देखते ही देखते पूरे देश में ‘बंबइया’ नाम से मशहूर हुए यह ‘मराठा’ छा गये। चॉंदी को शुद्ध करने की इनकी पद्धति परंपरा से हटकर है । यह एक बार में समूची चांदी को शुद्ध करके प्रस्तुत नहीं करते थे बल्कि एक पात्र जिसे ‘घड़िया’ कहते हैं, उसमें चांदी रखकर तेज आंच पर भट्टी में गलाई जाती है ।अशुद्धियों सहित समस्त गली हुई चांदी में से तीन ग्राम चांदी का टुकड़ा छैनी-हथौड़े की मदद से काटकर फिर यह अपनी प्रयोगशाला में उसकी प्रतिशत की शुद्धता की जांच करते हैं ।इसे तकनीकी शब्दावली में ‘टंच निकालना’ कहते हैं।
इसी के समानांतर आगे चलकर सोने के टंच निकालने का काम भी इन्हीं हुनरमंद हाथों से होने लगा। सोने के टंच निकालने की भी लगभग वही तकनीक थी। अशुद्धियों सहित सोना गला लिया फिर उसकी ‘रैनी’ अर्थात ‘छड़’ तैयार कर ली। छड़ में से आधा ग्राम सोना छैनी-हथौड़े से काटकर प्रयोगशाला में उसकी शुद्धता का प्रतिशत जांच लिया। इसे सोने के टंच निकालना कहते हैं। इस हुनर से फायदा यह हुआ कि अशुद्धियों सहित सोने की शुद्धता का पता चल जाता है ।अगर किसी को संदेह है तो वह अपने सोने के टंच एक से अधिक स्थानों पर भी निकाल कर देख सकता है। अतः कार्यों में प्रमाणिकता रहती थी। पुरानी परंपरागत सोने की शुद्धता के साथ ‘बिटूर’ बनता था। यह 99% से अधिक शुद्धता का होता था। लेकिन एक बार सोने के आभूषण को गला कर उसका बिटूर बनने के बाद फिर कुछ नहीं किया जा सकता था। दूसरी तरफ टंच की पद्धति में ग्राहक शुद्धता की चार जगह भी जांच कर सकता है।
समय के साथ-साथ चांदी का काम कम होता चला गया तथा सोने के टंच निकालने का काम बढ़ गया। तानाजी पवार बताते हैं कि तेरह साल की उम्र में वह महाराष्ट्र के गांव में कक्षा सात में पढ़ते थे। एक परिवारीजन ने, जो मेरठ में काम करते थे उनके सामने प्रस्ताव रखा कि क्या मेरठ चलोगे ?
तानाजी पवार में एक मिनट सोचा और फिर गांव को छोड़कर -राज्य को छोड़कर- सुदूर मेरठ में वह आ गए। उनके गुरु उदार स्वभाव के धनी थे। बहुत प्यार के साथ उन्होंने तानाजी पवार को सोने चांदी की गलाई और पकाई का काम सिखाया। अगर चांदी के टंच निकलते समय शीशे का बर्तन टूट गया तब भी उन्होंने सिर्फ यही पूछा- “हाथ में चोट तो नहीं लगी ?” कहते थे- “नुकसान की परवाह मत करो, बस काम सीखने रहो”
तानाजी पवार को हिंदी नहीं आती थी। केवल मराठी लिखना पढ़ना जानते थे। अगर बाजार से कोई सौदा लेने उन्हें जाना पड़ता था तो अपने गुरु से पूछते थे कि दुकानदार के पास जाकर उस से मनवांछित वस्तु किन शब्दों में मांगूंगा ? उदाहरण के लिए टमाटर खरीदने हैं तो गुरु सिखा देते थे -“आधा किलो टमाटर दे दो” -ऐसा कह देना। तानाजी पवार “आधा किलो टमाटर दे दो”- इस वाक्य को रटते हुए सब्जी वाले के पास जाते थे और काम कर लेते थे।
46 वर्ष की आयु में आज तानाजी पवार ऐसी धारा प्रवाह हिंदी बोलते हैं कि किसी को अनुमान भी नहीं हो सकता कि यह मूल मराठी भाषी ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें तेरह वर्ष की आयु तक सिवाय मराठी के कोई भाषा नहीं आती थी।
वर्षों की मेहनत से तानाजी पवार चांदी के टंच निकालने में और बाद में सोने के टच निकालने के कार्य में भी निपुण हो गए।
रामपुर में आए हुए भी तानाजी पवार को अठारह वर्ष हो गए हैं। “अब आपको कैसा लगता है? अब तो मशीनें आ गई हैं। उन मशीनों पर सोने का आभूषण रखा जाता है और मशीन एक मिनट के भीतर टंच निकाल कर बता देती है। अब आपका परंपरागत हुनर कितना उपयोगी है ?”
सुनकर तानाजी पवार मुस्कुराते हुए कहते हैं -“हर नई तकनीक पुरानी तकनीक को पीछे छोड़ देती है। हमने भी नई तकनीक सीखी थी। अब आज मशीन आ गई है। अब हमसे हमारी प्रयोगशाला में सोने के टंच निकलवाने भला कौन आएगा ? पूरे बाजार में मशीन का सिक्का चल रहा है। हमारे निकले हुए सोने के टंच की प्रमाणिकता भी नहीं है । इसके आधार पर सोने का लेनदेन भी नहीं होता। मशीन को भला कौन परास्त कर सकता है।”
तानाजी पवार उन व्यक्तियों में से हैं, जो विपरीत परिस्थितियों में जीवन जीने के संघर्ष की क्षमताओं से भरे हैं। आज उनकी घर-गृहस्थी में पत्नी, बेटा और बेटी हैं। बेटे को ‘हनुमान चालीसा’ कंठस्थ है। रामपुर में ‘टैगोर काव्य गोष्ठी’ में उसने अपनी हिंदी ज्ञान की प्रतिभा का परिचय दिया है। बेटी ने जिले की बोर्ड परीक्षा में टॉप टेन में स्थान पाया है। महाराष्ट्र के गॉंव में उनकी खेती की जमीन है लेकिन न वह उसे बेचने के इच्छुक हैं और न वापस गॉंव जाने का ही उनका मन है। बच्चों के उज्जवल भविष्य को रामपुर में रहकर ही निर्मित करने के लिए वह दृढ़ संकल्प हैं । कहते हैं कि पराजय के घोर क्षणों में भी ईश्वर उनका मार्गदर्शक और सहायक बनकर आ जाता है। सचमुच ईश्वरीय शक्ति पर विश्वास करने के कारण तथा पुरुषार्थ का साथ कभी न छोड़ने की उनकी प्रवृत्ति के कारण ही वह सफल हैं। हमारी हार्दिक शुभकामनाऍं उनके साथ हैं।