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11 Feb 2021 · 1 min read

तहखाना

तहखाने——
कब न थे, इंसान की जरूरत,
अपनी अमूल्य भावनाएं,
धन, टैक्स दिया हुआ, न दिया हुआ,
गिद्ध आंखों से बचाने को,
रख ही देता है सुरक्षित,

पुराना समय—-
चूल्हों के नीचे,
डब्बों में रख, गाड़ा जाता धन,
और कमरों के फर्श के कोनों पर
बिछी दरी?
और उठाने पर, नीचे को जाती,
पतली सी सीढियां—

सीलन भरा, अंधेरा सा कमरा
उसमे रखे कुछ संदूक,
ताले जड़े, गहने और धन,
और कागज-पत्तर,

और मन का तहखाना?
किसी के आने पर, चमकती आंखे,
और शरमाना,
किसी के बिन बोले डायलॉग,
जिन्हें नही किसी को बताना,

और आज के इंसानों के
विचित्र हैं तहखाने,
काले धन को छुपाने,
सात पीढियों का इंतज़ाम,
कभी गद्दों के भीतर तो
कभी वॉशरूम की,
टाइल्स लगी फर्श पर—-

कभी बैंक के बेनामी लॉकर,
जो जाने क्या-क्या छुपाए,
और कभी सात समंदर पार के,
स्विस बैंक के तहखाने,
उजागर सत्य से—
उफ! बदलती जरूरतें,
बदलते तहखाने।
रश्मि सिन्हा
मौलिक रचना

Language: Hindi
4 Likes · 4 Comments · 426 Views
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