तलाशता हूँ उस “प्रणय यात्रा” के निशाँ
बेखयाली में अभी भी सागर की उस नरम रेत पर
आज भी जाता ही हूँ तलाशने
तुम्हारे पैरों के निशाँ
सालों पहले जिन्हे बस अठखलियों में ही
अल्हड़ लहरों ने मिटा डाला था
प्रण यही था – ना वापस आऊंगा कभी
पर ये पैरों में रेत जो थे फँस गए
नुकीली यादों की तरह
हर शाम सम्मोहित कर हमें
ले आती हैं यहीं
ना जाने कब के मिट चुके
उस “प्रणय यात्रा” के निशाँ ढूंढते ढूंढते