तमाशा
इकट्ठे हुए सब देखने
उस शख्स को ,जो शिकार बना ।
हरेक मोड़ पर ,बन गयी तमाशा।
ज़िन्दगी में, मौत में ,समाज में,
बना दी गई,शव,मुर्दा,राखI
खाक हो रहे,वो खास,जिसे कहते हैं,जज्बात।
प्यार , भावना , समर्पण
नाम का बदनाम
बना दिए जा रहे हैं।
छल – कपट और बजार है साथ।
कौन जानता नहीं इसे आज |
बनते है जब मोहरा , तब लगता दर्द गहरा ।
क्या हो गया ? व्यक्तित्व में विकास
या है नैतिक व्यक्ति का अभिशाप।
किससे छुपाते हैं? कर्म को कुकर्म जब बनाते हैं।
त्रिदेव भी पालन , करते मूल नियम |
जिंदगी के लिए,सृष्टि के लिए ।
कहाँ गए , वो निर्णय ,सोच
जिसे युगद्रष्टा ने जीया, सोचा था ।
वो भावना भी बुत बनकर, मायुस होगें
खो रहा इंसान, व्यक्ति बन रहा हैवान ।
क्या यही है विकास ?
परुषार्थ के नाम, पहचान।
अब तो धर्म के नाम धंधा है।
मोक्ष के नाम अर्थ, काम।
जो चरम सीमा ,
ये तमाशा है हकीकत है _ डॉ. सीमा कुमारी ,
बिहार (भागलपुर )