तब मैं कविता लिखता हूँ
….तब मैं कविता लिखता हूँ
जब बछड़े को दूध पिलाती कोई गैया।
चोंच में चूजे को दाना ले जाती गौरैया।
कोई बन्दरी छाती पर बच्चा चिपटाकर ढोती।
नन्हीं चींटी चीनी लेकर जा रही होती।
प्रेम भरी इस छटा को रूककर लखता हूँ।
….तब मैं कविता लिखता हूँ।
जब कोई प्रियसी केश संवार रही हो,
अपने प्रियतम को मौन निहार रही हो।
साजन गजरा लेकर आ जाता जब,
हाथों से सजनी के केश सजाता तब।
प्रणय के पल को बंदों में भखता हूँ।
….तब मैं कविता लिखता हूँ।
सरहद पर चौकन्ना सैनिक जाग रहा है,
जिसे देख घबराया दुश्मन भाग रहा है।
कदमताल करती फौजों की टोली,
गर्दन ऊंची किये बढ़े करते जय बोली।
टोली की लय को मैं भी सिखता हूँ,
….तब मैं कविता लिखता हूँ।
घाव के कारण रोगी कोई कराह रहा हो,
और चिकित्सक लाचारी दोहराए रहा हो।
आंख तड़पकर झरनावत बन जाती है।
चीख भरी पीड़ा जब बहुत डराती है।
निज भावों के घावों पर मरहम रखता हूँ।
….तब मैं कविता लिखता हूँ।
कभी कभी नीरवपन को मैं चुन लेता।
असत भरे तम सन्नाटे को सुन लेता।
अंतर्मन कहता अंधियारा जाए कैसे?
हृदयांगन देदीप्यमान हो पाये कैसे?
हाथ फैलाये उसके दर पर भिक्षुक सा दिखता हूँ।
….तब मैं कविता लिखता हूँ।
-सतीश सृजन, लखनऊ