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17 Feb 2024 · 1 min read

तब गाँव हमे अपनाता है

आयु छोटी थी किंतु-
घर का बड़ा था मैं ।
फुटे थे भाग्य माथे के
छुटा था साया बाप का सिर से।
इसलिए छोटी आयु में ही यह सोच के
निकला गाँव से शहर की ओर मैं।
अब मेरा रक्षक तो विधाता है
तब गाँव हमे अपनाता है।

बड़े-बड़े लोगों के पास
चार पैसे कमाने की आस।
परिवार का मुझ पर विश्वास
बड़ा हूँ न घर का-
तो मिटा लेगा कुटुंभ की भूख-प्यास।
अब सोचा यह मेरी माता ने है
तब गाँव हमे अपनाता है।

देख अपनी ही उम्र के बच्चो को
खेलने, कूदने का करता मेरा भी मन है।
मुझे भी याद आता वह बचपन है
और अपना छोटा सा जीवन है।
सखा संग वह गिल्ली-डंडे का खेल है
सांझ होते ही गाँव में सब मित्रो का मेल है।
आज लिए जिम्मेदारी संग शहर में
यह शहर लग रहा कोई जेल है।
जब शहर पराया लगता है
तब गाँव हमे अपनाता है।

याद आता गाँव का भाईचारा है
शहर में मिलता न कोई सहारा है।
शोर शहर का मन को जलाता है
आज गाँव बहुत मुझे याद आता है।
जब हृदय विरह से भर आता है
तब गाँव हमे अपनाता है।
तब गाँव हमे अपनाता है।।

स्वरचित एवं मौलिक रचना
✍संजय कुमार ‘सन्जू’
शिमला हिमाचल प्रदेश

Language: Hindi
67 Views
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