‘तपस्वी सुमन’
हर पल सोचती हूँ तुम्हें,
तुम्हारी मंद मुस्कान को।
उगते हुए दैदीप्यमान के
स्वागत-सत्कार को लालायित!
तुम्हारी बिछने की प्रवृत्ति को।
हर पल सोचती हूँ!
साँझ होने पर सिकुड़ते
तितली से रंगीले पर,
होते उदास ज्यों-
किसी प्रिय के जाने पर।
हर पल सोचती हूँ तुम्हें!
हथेलियों को फैलाकर,
नयनों के ऊपर ताकने की मुद्रा में,
कर लेना स्व को कैद अंधकार में।
हर पल सोचती हूँ तुम्हें!
आजीवन यही तो सिलसिला चुना है
तुमने, दुनिया से जाने तक।
ये घोर तपस्या ही तो है,
हे तपस्वी सुमन!
हर पल सोचती हूँ तुम्हें!
हर पल सोचती हूँ!
स्वरचित व मौलिक
-गोदाम्बरी नेगी