तन-मन की गिरह
कोई तो मेरे मन की
तन से सुलह करा दे।
तन मन की जो गिरह है
कोई उसे सुलझा दे।
तन है विवश कि जग से
है साम्यता जरूरी ।
मन तो है मुक्त चिंतन
भाये उसे फकीरी ।
तन की जुगत है बंधन
सारे सभी तुम साधो ।
मन कहता जी लो जीवन
इसको न व्यर्थ बांधो ।
तन मन प्रथक दिशा में
जीवन निःसार सा है ।
तन भी थका हुआ सा
मन भी निढ़ाल सा है |
बस बढ़ रहा समय ये
सांसे ये घट रहीं हैं ।
क्या कहते इसको जीवन
जो श्वांस चल रही है।