तख्लीकी ज़ेहन (सृजन-चेतना)
कुछ वक़्त
कुछ हालात की
साज़िश थी
कायनात की
कि मैं
शायर बन गया..
(१)
मैंने जब किसी का साथ चाहा
बदले में तन्हाई मिली
एक मासुमियत के जुर्म में
उम्र भर की रुसवाई मिली
कुछ ख़्याल
कुछ जज़्बात की
साज़िश थी
कायनात की
कि मैं
शायर बन गया…
(२)
मिली थी हमें जो ज़िंदगी
वह तो दहशत बनके रह गई
इतनी ख़ुबसूरत दुनिया
केवल दोजख बनके रह गई
कुछ कुदरत
कुछ समाज की
साज़िश थी
कायनात की
कि मैं
शायर बन गया…
(३)
हाथ पर अपने हाथ रखकर
आख़िर कब तक बैठे रहता
सब कुछ जलता जा रहा था
मैं तमाशा कैसे देखते रहता
कुछ होश
कुछ ख़्वाब की
साज़िश थी
कायनात की
कि मैं
शायर बन गया…
(४)
चुप रहना भी मुश्किल था
कुछ कहना भी मुश्किल था
मुझ पर था जो बीत रहा
उसे सहना भी मुश्किल था
कुछ इश्क़
कुछ इंकलाब की
साज़िश थी
कायनात की
कि मैं
शायर बन गया…
#Geetkar
Shekhar Chandra Mitra
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