ढोल की पोल
करोना ने खोल दी पोल मानव संबंधों की ,
कोई इनका आधार भी अब बाकी न रहा ।
कल तक जो ढिंढोरा पिटते थे अपनेपन का ,
देखकर कतराने लगे अब वो प्यार ना रहा ।
बेसहारा हुए जो वृद्ध जन,बच्चे और बेवाएं,
अब उजड़े चमन को पूछने वाला ना रहा।
विधिवत अंतिम संस्कार को तरसती लाशें ,
मुखाग्नि देने को कोई “अपना” भी ना रहा ।
खुश्क हो गया जाने कैसे लहू का लाल रंग ?,
जज़्बात मर गए तो क्या ईमान भी न रहा !!
हे ईश्वर ! इस इंसान ने कैसा रूप बदला है ,
करोना के सबब इंसान इंसान ही ना रहा ।