ढलती हुई दीवार ।
ढलती हुई दीवार से पूछो, ज़िन्दगी का सही मतलब बताएगी,
उसकी ईंटों की एक-एक दरार, जाने कितने किस्से सुनाएगी।
बारिशों में भींगती थी, और धूप में जलती थी वो,
पर उसे कहाँ पता था, अपनों का ताप उसे इतना झुलसाएगी।
त्योहारों की ख़ुशी और, मातमों के दर्द को सहती थी वो,
पर उसे कहाँ पता था, स्वार्थ में लिपटे रिश्तों को देख वो इतना सहम जायेगी।
छतों पर गुजरती गर्मी की रातें, और गुलमोहर तले होती, प्यार की बातें सुनती थी वो,
पर उसे कहाँ पता था, बंद कमरों में गूंजती बंटवारे की साजिशें, उसे इतना स्तब्ध कराएंगी।
किलकारियों से गूंजते पालने, और लुका-छिपी की खिलखिलाहटों, में हंसती थी वो,
पर उसे कहाँ पता था, चौखटों पर बुजुर्गों के होते तिरस्कार, उसे इतना बिखरायेगी।
बारिशों में नाचती कागज़ की कश्तियाँ और माँ की गोद में लोरी की थपकियाँ, संग थिरकती थी वो,
पर उसे कहाँ पता था, माँ के आंसुओं को सुखाना, उसे इतना तड़पायेगी।
पक चुकी फसलें और नयी कोपलों को संजोती थी वो,
पर उसे कहाँ पता था, दुहराती हुई घटनाएं, उसे कर्म-चक्र समझा जाएंगी।