ढलता वक्त
घर के घर आए जद में
उनकी उस जिद से ।
जलजला नहीं सैलाब था
उनके भीगे पलकों से ।।१।।
शहर चमकती रोशनी में
दमक रही थी दुल्हन–सी।
झरने,बादल सारे फूटे
बह गई मेरी हवेली भी।।२।।
क्या खुदा के इबादत में?
क्या सजदा के नजरों में?
हसरत थी घर बस जाए
इन लहरों के किनारे में।।३।।
अब तो सूखी रेत हैं बिखरी
टुकड़े बह कर आते हैं ।
पैगाम वक्त का लेकर के
काफिर काफ़िले आते हैं ।।४।।